Friday, December 18, 2009

बालीवुड पर भारी जेम्स कैमरान का अवतार

भोपाल। इस शुक्रवार एक बार फ़िर बालीवुड पर हालीवुड भारी पड़ा। ऐसा लगता है की बालीवुड को भी जेम्स कैमरान का अवतार चाहिए, क्योंकि बालीवुड की एक साल की कोशिश पर हालीवुड की कोशिश भारी पड़ जाती है। अवतार नाम की जो फ़िल्म आज रिलीस हुई उसने दर्शकों को दोबारा आने के लिए आमंत्रित कर दिया है। लंबी प्रतीक्षा के बाद जेम्स कैमरान विज्ञानं फंतासी लेकर आए हैं, जिसने दर्शकों के थोड़ा रूककर अभिभूत कर दिया। गौरतलब है की जेम्स कैमरान ने दर्शकों से वादा किया था की वे हैरान के देने वाले होंगे और आज उन्होंने वादा निभाया। यह एक विशेष फिल्म है जो दर्शको के साथ-साथ आलोचकों के भी रोमांचित करती है। सबसे अच्छी बात ये है की मूर्खतापूर्ण हँसी और फूहड़ दृश्यों से दर्शकों को दूर रखा गया है, क्योंकि कुछ दिनों से हालीवुड वाले भी भारत को ध्यान में रखते हुए बेहूदा हास्य डालने लगे हैं। जैसा टीवी पर दर्शक ट्रेलर देखते हैं वेसे ही मजे उसे सिनेमा में फ़िल्म देखने पर भी आता है। शुरुआत में जरुर फ़िल्म थोड़ा स्लो चलती है है, लेकिन बाद में जेसे फ़िल्म गति पकती है तो दर्शकों में रोमांच जाग जाता है।
कहानी-पेन्डोरा गृह जिसका एक किलो का पत्थर एक करोड़ रूपये में बिकता है। उसी पत्थर की खोज एक व्यापारी को पेन्डोरा गृह ले आती है। लेकिन पेन्डोरा रहने वाले जीव उनके लिए समस्या हैं। इस समस्या से पार पाने के लिए व्यापारी जान नमक एक विकलांग सैनिक को चुनता है और जान पेन्डोरा गृह के निवासियों में घुलने मिलने में कामयाब हो जाता है। जान का काम था की वह पेन्डोरा के निवासियों को ये बात बता दे की उन्हें पेन्डोरा के गाँव ख़ाली करना है। लेकिन जान को पेन्डोरा के सरदार की लड़की से प्यार हो जाता है। इस दौरान व्यापारी पेंडोरा पर हमला करने की तय्यारी कर लेता है इस बात की भनक सिम को लग जाती हैफ़िर शुरू होता है जबरदस्त रोमांच जो की फ़िल्म खत्म होने के बाद दर्शकों के सीने में चलायमान है। कुल मिलाकर एक अवतार की आंखों के माध्यम से प्राकृतिक और अप्राकृतिक चमत्कार के अंतहीन, लुभावनी संग्रह को पेश किया, गया है। सभी अलौकिक तरलता के साथ प्रदान की गई है। पेंडोरा अनगिनत पशु प्रजातियों में से एक है और हम अपने हाथों पर एक प्रामाणिक क्लासिक फिल रख सकते हैं। अवतार, कहानी और चरित्र के विकास में बाधा के रूप में इलाज कर रहे हैं, कथा ब्रश कि स्पष्ट किया जाना चाहिए की जेब को अगले असाधारण व्यापक सेट टुकड़ा के निर्माण के लिए रास्ता बनाने में कटौती। और फिर भी, उसकी खामियों के बावजूद, अवतार उन में से एक अत्यंत दुर्लभ मामलों में प्रतिनिधित्व करता है जो पदार्थ पर शैली की जीत - और एक भूस्खलन से. इस फ़िल्म में जिनको अभिनय दिखने का मौका दिया उन्होंने थोड़े समय में भी अपना कमल दिखा दिया। दिक्कत है तो केवल एक की फ़िल्म को बेहतर ढंग से समझने के लिए दो बार देखना पड़ेगी। भोपाल के रम्भा, संगम, और एक एनी सिनेमा ये फ़िल्म लगी और क्रिकेट मैच होने के बावजूद फ़िल्म को दर्शक मिले।

Monday, December 14, 2009

मजाक बन गई मप्र सरकार की राजेन्द्र माथुर फैलोशिप

प्रारंभिक दौर में गरिमा के साथ सुयोग्य पत्रकारों को दी गई यह फैलोशिप ताजा दौर में रेवडी की भांति चीन्ह-चीन्ह कर दी जा रही है। दुख तो यह है कि फैलोशिप देने वाले और पाने वाले के अलावा शायद ही कोई जान पाता हो कि मूर्धन्य पत्रकार स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर कोई राष्ट्रीय फैलोशिप भी दी जा रही है।
राजेन्द्र पाराशर
भोपाल। लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर के नाम पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रारंभ की गई फैलोशिप अब मजाक बनकर रह गई है. सौम्य और शालीन पत्रकारिता के प्रतीक स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर दी जाने वाली फैलोशिप वर्तमान दौर में निहित स्वार्थों की राजनीति के चलते अपने-अपनों को उपकृत करने का जरिया बन गई है. नईदुनिया और नवभारत टाइम्स जैसे सुप्रतिष्ठित अखबारों के संपादक रहे और पत्रकारों की संस्कारित पीढी तैयार करने वाले स्वर्गीय श्री माथुर ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके नाम का इस तरह मखौल उडाया जाएगा अथवा उनके नाम पर फैलोशिप स्थापित कर इस प्रकार उनकी छीछालेदर की जाएगी. प्रारंभिक दौर में गरिमा के साथ सुयोग्य पत्रकारों को दी गई यह फैलोशिप ताजा दौर में रेवडी की भांति चीन्ह-चीन्ह कर दी जा रही है. दुख तो यह है कि फैलोशिप देने वाले और पाने वाले के अलावा शायद ही कोई जान पाता हो कि मूर्धन्य पत्रकार स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर कोई राष्ट्रीय फैलोशिप भी दी जा रही है. वर्तमान में फैलोशिप के साथ योग्यता के मापदंड भी बदल गये हैं. प्रदेश में जब सरकार कांग्रेस की थी तो फैलाशिप पाने वाला अलग वर्ग हुआ करता था और भाजपा की सरकार आने के साथ योग्यता के मापदंडों में आरएसएस से जुडाव या उसके अनुमोदन की शर्त जुड गई है या जोड दी गई है. स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर जब इस फैलाशिप की शुरूआत हुइर्, तब सरकार की मंशा साफ थी, उसके मापदंड तय थे और योग्यता का भी पूरा-पूरा ख्याल रखा गया था.यहां तक की चयनकर्ता भी उतने ही तटस्थ रहे जिन्होंने हर बात पर फैलोशिप पाने वाले को परखा उसके बाद ही उसका चयन किया. यही वजह थी इस फैलोशिप की शुरूआत के समय जिन लोगों को यह दी गई वे योग्यता के आधार पर लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार थे. तब सरकार इस फैलोशिप की पूरी गरिमा भी बनाए हुए थी, साथ ही जिसे यह दी जाती थी उससे शर्तों के अनुसार पूरा कार्य भी कराया जाता था. इसकी गरिमा कुछ ऐसी बन गयी थी कि भव्य समारोह में जब उस लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार को यह फैलाशिप दी जाती थी तब उसे भी यह महसूस होता था कि पत्रकारिता के इस कठिनाईयों भरे सफर में उसने ऐसा कार्य किया है, जिसका प्रतिफल वह आज पा रहा है. इस प्रतिफल के रूप में उसे सरकार नवाज रही है और पूरा देश यह जान रहा है कि स्वर्गीय माथुर साहब के नाम को जीवित रखने के लिए कुछ कार्य हुआ है.आज जब हम वर्तमान में इस फैलाशिप के बारे में जानने की कोशिश करते हैं, तो ऐसा महसूस होता है कि वह केवल एक ऐसा हवा को झोंका था जो आया और अपने साथ सब कुछ उडा कर ले गया. यह सब केवल चार वर्षों तक ही ठीक-ठीक चला. याने वर्ष १९९६ से शुरू की गई यह फैलोशिप वर्ष २००० के बाद बंद सी हो गई थी. सबसे पहले इसे पाने वाले लब्ध प्रतिष्ठि पत्रकार थे श्री राजकिशोर, इसके बाद मध्यप्रदेश के श्री शिवअनुराग पटेरिया जिन्हें वर्ष १९९७ की फैलाशिप दी गई. इसके बाद १९९८ की फैलाशिप श्री हरीश पाठक को और वर्ष २००० में यह श्री उर्मिलेश को दी गई. वर्ष १९९९ में यह फैलोशिप किसी को नहीं दी. इसके बाद निरंतर तीन वर्षो याने वर्ष २००१ से २००३ तक ये फैलोशिप किसी को ही नहीं दी गई. राज्य में जब वर्ष २००३ में सत्ता परिवर्तन हुआ और बंद हुई इस फैलोशिप की ओर नजर गई तो सरकार ने इसकी शुरूआत की, पर पता ही नही चला की कब इसकी शुरूआत हो गई. इतना जरूर सुनने में आया कि वर्ष २००४ से २००७ तक लगातार यह फैलोशिप दी गई, मगर कब, किसने और किसे दे दी यह जानकारी किसी को नहीं. इसे हम शासकीय उपेक्षा या सरकार की बेरूखी ही कह सकते है, जो बंद फैलोशिप को शुरू तो की परन्तु इस तरह की किसी को इसकी जानकारी ही न हो. याने जिस प्रकार सरकार प्रारंभिक काल में इसके लिए प्रचार प्रसार करती थी, गरिमापूर्ण आयोजन होता था वह इसलिए कि और भी इस फैलोशिप के लिए प्रेरित हों, ताकि स्वर्गीय माथुर के नाम पर शुरू किया गया यह कार्य अनवरत उसी निष्ठा के साथ चलता रहे जिस निष्ठा के साथ श्री माथुर साहब पत्रकारिता करते रहे.वर्तमान में इस फैलोशिप के साथ सरकार की मंशा तो बदली साथ ही इस पर एक विचारधारा वाले समूह का कब्जा सा हो गया है. उन्हीं लोगों को इसके जरिए उपकृत किया जा रहा है जो उस विचारधारा से या उन विचारधारा वालों से जुडे हैं. फैलोशिप के नाम पर पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थान तो दूर की बात है, परिचय के भी मोहताज लोगों को यह फैलोशिप मिल रही है. इसका उदाहरण है कि वर्ष २००४ से २००७ तक के लिए जिन लोगों को यह फैलाशिप उपकृत करने के लिए दी गई वे लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकारों की श्रेणी में तो नजर नहीं आते हैं. वर्ष २००४ के लिए यह फैलोशिप कु. मोना बिल्लोरे, वर्ष २००५ के लिए श्री अंजनि कुमार झा, २००६ के लिए श्री सुरेश शर्मा और २००७ के लिए श्याम यादव को दी गई. पत्रकारिता के क्षेत्र में मोना बिल्लोरे गुमनाम नाम के समान है. वे किसी वक्त जब भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र नवभारत में श्री विजयदत्त श्रीधर सम्पादक हुआ करते थे तब इस समाचार पत्र में कार्यरत थीं, इसके बाद उनका कार्यकाल सप्रे संग्रहालय और वर्तमान में वे सरकार के उपक्रम वन्या प्रकाशन में कार्यरत हैं. इन्हें किस योग्यता पर खरा पाया गया चयनकर्ता ही बता सकते हैं. वहीं श्री अंजनि झा और श्री सुरेश शर्मा एक विचारधारा से जुडे पत्रकारों के रूप में जाने जाते हैं. श्री झा जो कि बिहार से भोपाल आए, लेकिन राजधानी भोपाल में ही पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं कर पाए कि उन्हें पत्रकार के रूप में ख्याती मिली हो, लेकिन वे संघ की विचारधारा वाले संवाद केन्द्र से जुडे होने का फायदा जरूर उठा गए. बिहार से भोपाल आकर अंतरराष्ट्रीय विषयों के विशेषज्ञ माने जाने वाले लब्धप्रतिष्ठित स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर के नाम स्थापित फैलोशिप के वे कैसे हकदार बन गए यह तो चयनकर्ता ही जाने. इसी तरह संघ की विचारधारा वाले और 'अपनी सरकार÷ व 'सरकार के वे÷ कहने वाले श्री सुरेश शर्मा से तो सभी परिचित हैं. दैनिक स्वदेश से व्यापार प्रतिनिधि के रूप में पत्रकारिता का सफर शुरू कर उन्होंने खुद का एक साप्ताहिक अखबार 'शिखर मेल÷ निकाला. इस अखबार के वे मालिक, सम्पादक रहे. इनके बारे में बताते हैं कि अवसर पाते ही अखबार के नाम सरकार से जमीन आवंटित कराई और समय आते ही इसे किसी बिल्डर को अखबार सहित बेंच दी. श्री शर्मा का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वे हमारी सरकार के नाम पर ओजपूर्ण बातें कर वह सबकुछ पा जाना चाहते हैं जो कांग्रेस शासनकाल में वे नहीं पा सके थे. उन्होंने भी अवसर पाते इस फैलोशिप के लिए दरवाजा खटखटा दिया और फैलोशिप पा गए. इसी तरह उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद के रहने वाले श्यामलाल यादव को वर्ष २००८ के लिए इस फैलोशिप से नवाजा गया. दुर्भाग्य की बात है कि किसी सरल, सौम्य और किसी गुट में शामिल न रहे स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर स्थापित फैलाशिप आज कैसे और किन पत्रकारों को मिल रही है, यह सब देख और सुन दुख होता है. उन लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकारों को भी इसी बात का मलाल है जिन्हें पूर्व में इस फैलोशिप से नवाजा गया. आज वे जब मध्यप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित इस फैलोशिप की दुर्गति होते या शासनतंत्र द्वारा निहितस्वार्थों के चलते करते देखते हैं तो कुछ समय के लिए सहम जाते हैं, और कुछ कह भी नहीं पाते हैं. आज जिस तरह यह फैलोशिप दी जा रही है उसके बारे में न तो कोई यह जान पाया है कि कब यह वितरित की गई, कब चयनकर्ताओं ने इनका चयन कर लिया और वे किस विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं. इन शोधार्थियों द्वारा फैलोशिप के तय मापदंडों को पूरा भी किया जा रहा है या नहीं ।
राजेन्द्र पराशर वर्तमान में लोकमत समाचार में कार्यरत हैं।

इंदौर प्रेस क्लब पत्रकारिता कम राजनीती का अड्डा ज्यादा


भोपालइंदौर प्रेस क्लब की पानी गरिमा कभी हुआ करती थी, लेकिन बीती कुछ वर्षों में ये अर्श से फर्श पर आ गई है। यहाँ पत्रकारिता सीखने अब कोई नही आता। हाँ पहले जरुर वे पत्रकार जो करियर की शुरुआत करते थे, यहाँ आया करते थे की शायद कोई वरिष्ठ पत्रकार मिल जाए जो एकाध स्टोरी बता देन या फ़िर कोई स्टोरी आईडिया बता दे। लेकिन अब ऐसानही होता क्योंकि प्रेस क्लब के सदस्य इन दिनों चुनाव में व्यस्त हैं। पुरी पोलखोल रहे हैं इंदौर के अग्नि ब्लास्ट के सम्पादक मुकेश ठाकुर।
पड़ें-प्रेस क्लब में भटकती पत्रकारिता की आत्मा

Thursday, December 10, 2009

अब सबसे पहले आम आदमी मीडिया के दरवाजे खटखटाता है

पिछले कुछ वर्षो से मीडिया की जिस तरह से आलोचना हो रही है, उसे उसके सरोकार और दायित्वबोध की याद दिलाई जा रही है, वह बात हैरत में डालने वाली है। यह किसी भी क्षेत्र की बढ़ती ताकत का ही सबूत है यह इसे साबित करता है कि मीडिया से लोगों की अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं कि बाकी स्तंभों से ज्यादा याद उसकी होती है । लोकतंत्र के तीन संवैधानिक स्तंभों से उपजी निराशा भी शायद इसका कारण है कि लोग हर बीमारी को मीडिया ताकत से ठीक करना चाहते हैं । पहले चलन यह था कि सभी दरवाजों से निराश आदमी अखबार के दफ्तर में आता था । आज वह सबसे पहले अखबार या निजी चैनल के दफ्तर पहुँचकर न्याय मांगता है । स्टिंग आपरेशन और भ्रष्टाचार कथाओं तक पत्रकारों की पहुँच खोज से कम, जनता के सहयोग से ज्यादा सफल हो रही है ।लोकतंत्र के प्रति हमारी व्यापक प्रतिबद्धता के बावजूद उसके तीनों स्तंभों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के प्रति आम जनता का नैराश्य बढ़ा है । सामाजिक बदलाव के दौर से गुजरता देश जहाँ तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है, वहीं समाज में असमानता भी बढ़ी है । ऐसी विविध स्तरों वाली सामाजिक रचना हमारे लिए चिंतन और चुनौती दोनों का विषय है । शायद यही कारण है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में निरूपित किए जा रहे मीडिया के प्रति लोगों की उम्मीदें और शिकायतें बहुत बढ़ गई हैं । पिछले १० वर्षो का समय सूचना और मीडिया के व्यापक प्रसार का है तो उससे बढ़ती जा रही अपेक्षाओं का भी है । राजनीतिक तंत्र के प्रति अनास्था का विस्तार तो लंबे समय से जारी है, किन्तु धीरे-धीरे प्रशासन और न्यायपालिका के प्रति भी ऐसे ही भाव रेखांकित किए जाने लगे । संवैधानिक तंत्र के प्रति उपजे नैराश्य ने मीडिया को बहुत ही अपेक्षाओं का केन्द्र बना दिया। जरा कड़ी भाषा में कहें तो मीडिया एक ऐसा कंधा है जिसकी तलाश में हर आदमी है । मीडिया ही आपकी लड़ाई लड़े यह भाव प्रखर हो रहा है । दृश्य माध्यमों के हल्लाबोल ने इसे एक ऐसे शक्ति केन्द्र में तब्दील कर दिया है - जो आपकी हर समस्या का समाधान कर सकता है । उम्मीदों की यह बढ़ती हुई सीमारेखा, प्रभुवर्गो तक सीधी पहुँच, सवाल पूछने या खड़ा करने की ताकत ने मीडिया की महिमा बढ़ा दी है । आज मीडिया चौतरफा आलोचना का केन्द्र बन रहा है तो उसका सीधा कारण है कि वह जन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पा रहा है । सूचना, शिक्षा, मनोरंजन से आगे उससे यह भी अपेक्षाएँ की जा रही हैं कि वह नैतिक पुलिस का काम करे । हर अन्याय से जूझे । आम आदमी प्रश्नों को उठाए। जबकि उसका अर्थतंत्र और बाजार की बढ़+ती शक्ति उसे पूर्णतः जनधर्मी रवैया अपनाने से रोकती है । बावजूद इसके मीडिया गहरे सामाजिक सरोकारों से जुड़कर काम कर रहा है । तमाम मुद्दों को सामने ला रहा है । भ्रष्टाचार, जनसुविधा के अभाव, संवेदनहीनता की कहानियाँ, स्टिंग ऑपरेशन, अपराध के पीछे चेहरों को मीडिया ही उजागर कर रहा है । कई मामलों में प्रशासन, पुलिस और सरकारी तंत्र से पहले पहुँचकर मीडिया अपने इस दायित्वबोधकी पुष्टि भी करता है । इस संदर्भ में खबरों को संज्ञान में लेकर दायर जनहित याचिकाएँ भी बिनी जा सकती हैं । मीडिया से बढ़ती जा रही उम्मीदें पूरा कर पाना संभव नहीं है । जाहिर है लोगों में मीडिया के प्रति असंतोष गहराता जाता है । नेता, पुलिस, बाबूराज से तंग लोग बड़ी उम्मीदों से चौथे स्तंभ की तरफ देखते हैं । वे यह आशा रखते हैं कि मीडिया उन्हें न्याय जरूर दिलाएगा । मीडिया ऐसे प्रसंगों पर संवेदनशीलता का रूख अपनाकर अपनी जनपक्षधरता का अपेक्षित प्रदर्शन भी करता है । जिससे मीडिया सत्ताधीशों, प्रशासन और प्रभुवर्गो के निशाने पर आ जाता है । यदि वह इनमें से किसी के दबाव में आ जाता है तो उसे आम आदमी या पीड़ित पक्ष की आलोचना का केन्द्र बनना पड़ता है । ऐसे में मीडिया के लिए तटस्थ रहकर अपना ईमानदार कार्य संपादन बेहद कठिन हो जाता है । हालात ऐसे हैं कि उसे हर हाल में आलोचना ही भुगतनी है । भ्रष्टाचार में आकंठ लिप्त राजनेता, अधिकारी भी मीडिया को नैतिक प्रवचन देने से बाज नहीं आते । मीडिया के दायित्वबोध पर जब ऐसे लोग वक्तव्य देते हैं तो बहुत दया आती है । प्रशासनिक-राजनैतिक तंत्र में पसरी संवेदनहीनता, संवादहीनता, भ्रष्टाचार, घूसखोरी कुछ ऐसे कारण हैं जिसके चलते मीडिया का उपयोग करने की प्रवृत्तियाँ बढ़ी हैं । इस उपयोगितावाद में मीडिया के लिए भी अच्छे-बुरे विचार मुश्किल हो जाता है । खबर जल्दी देने की त्वरा में कई बार तथ्यों की पूरी तरह पड़ताल नहीं हो पाती है । इस भ्रष्ट तंत्र में शामिल लोग भी एक-दूसरे के खिलाफ खबरें छपवाने के लिए मीडिया के इस्तेमाल की कोशिशें करते हैं । खबर पाने का लोभ शायद ही कोई मीडियाकर्ती छोड़ पाता हो । यह आपाधानी नये तरह के दृश्य रच रही है । सामाजिक अपेक्षाओं की पूर्ति हर स्तर पर करने के बावजूद कहीं न कहीं कमी रह ही जाती है । लोकतंत्र के तीन स्तंभ यदि अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित नहीं करते और अपने दायित्वबोध के प्रति सजग नहीं होते तो मीडिया की ताकत अभी और बढ़ेगी । यदि हमारा तंत्र संवेदनशीलता के साथ काम करे, अंतिम व्यक्ति को न्याय देने का सामर्थ्य विकसित करे तो हालात बेहतर होते नज+र आएंगे । अराजक स्थितियाँ खबरों के लिए स्पेस बनाती हैं । यह गंभीरता से सोचें तो हमारी राजनीतिक-प्रशासनिक और व्यवस्था की कुछ कमियों ने मीडिया की प्रभुता का आकाश बहुत बड़ा कर दिया । अब प्रभुवर्गो की सारी शक्ति इसी मीडिया को मैनेज करने लगी है । क्योंकि कोई भी खुद को आइने के सामने खड़ा करने को तैयार नहीं है । ऐसे में हमें अपने सामाजिक सरोकारों, दायित्वों को समझकर देश के प्रशासनिक-राजनीतिक तंत्र में भी वही संवेदना जगानी होगी, जिस संवेदना से मीडिया अपने दायित्वबोध को अंजाम देता आया है। शायद आलोचनाओं की जद में आज मीडिया इसलिए भी है क्योंकि लोगों की उम्मीदें सिर्फ उसी पर टिकी है । लोगों को भरोसा है कि मीडिया ही समाज में घट रहे अशोभन को घटने से रोक सकता है । मीडिया की आलोचना का तेज होता स्वर दरअसल उसकी बढ़ती स्वीकार्यता, शक्ति का ही प्रगटीकरण है।
संजय द्विवेदी
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Saturday, December 05, 2009

युद्ध पत्रकारिता पर एक बेहतरीन पुस्तक

रक्षा विषयों और खासतौर पर रक्षा पत्रकारिता पर हिन्दी में, पुस्तकों का व्यापक अभाव है। आज हिन्दी के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का ही व्यापक विस्तार नहीं हुआ है। बल्कि प्रसार और पाठकों की दृष्टि से हिन्दी को व्यापक स्वीकार्यता व समर्थन मिला है। इस सबके बावजूद त्रासदी यह है कि विज्ञान और तकनीकी की पुस्तकों की तरह रक्षा विषयों पर हिन्दी में पुस्तकों के साथ ही दूसरी पठन-पाठन सामग्री अत्याधिक अल्प मात्रा में उपलब्ध है। ऐसे में छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर द्वारा, प्रकाशित शिव अनुराग पटैरया की पुस्तक प्रतिरक्षा पत्रकारिता एक अच्छी पहल है। प्रतिरक्षा पत्रकारिता के क्षेत्र में अब तक शायद ही कोई पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध हो। श्री पटैरया की पुस्तक इस कमी को पूरा ही नहीं करती है बल्कि प्रतिरक्षा पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ ही दूसरे आम लोगों में रक्षा विषयों की समझ व सरोकार पैदा कर सकती है। प्रतिरक्षा पत्रकारिता की भूमिका में प्रसिद्ध पत्रकार और छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी के संचालक श्री रमेश नैयर ने लिखा है- प्रतिरक्षा रिपोर्टिंग हिन्दी पत्रकारिता की एक नई शाखा है, जो इधर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाती है। हिन्दी प्रतिरक्षा रिपोर्टिंग का इतिहास भले ही महाभारत काल से तलाश लिया जाए और महाभारत के महासमर का ऑखो देखा हाल बयान करने वाले संजय को प्रथम समर-संवाददाता बता दिया जाए, परंतु आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में प्रतिरक्षा रिपोर्टिंग का क्षेत्र खाली-खाली सा दिखाई देता रहा है। सन् १९४७ के अंत में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर किए गए आक्रमण की रिपोर्टिंग कुछ अंग्रेजी अखबारों और ऑल इंडिया रेडियो द्वारा सरकारी एजेंसियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर की गई। पाकिस्तान द्वारा १९६५ में किए गए आक्रमण और दोनों देशों के बीच हुए युद्ध की रिपोर्टिग अंग्रेजी के साथ ही हिन्दी एवं अन्य भाषाई समाचार-पत्रों और समाचार एजेंसियों द्वारा कुछ विस्तार से की गई। फिर १९७१ में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और उसके परिणामस्वरूप पाकिस्तान द्वारा पूरब और पश्चिम में एक साथ भारत के विरूद्ध मोर्चे खोल दिए जाने पर पहली बार भारतीय मीडिया ने समरक्षेत्र के बहुत निकट पहुंचकर घटनाक्रम की रिपोर्टिंग की। उस दौरान पत्रकारों ने कुछ जोखिम उठाकर युद्ध-क्षेत्र के जीवंत वृतांत प्रस्तुत किए। "धर्मयुग" के संपादक श्री धर्मवीर और साहित्य, पत्रकारिता एवं राजनीति में समान रूप से सक्रिय श्री विष्णुकांत शास्त्री ने बंगलादेश मुक्ति संग्राम का आंखो देखा जो विस्तृत विवरण सिलसलेवार प्रकाशित किया, वह हिंदी में परिपक्व "प्रतिरक्षा रिपोर्टिंग का उत्कृष्ठ उदाहरण था! परंतु तब भी भारतीय पत्रकारिता में प्रतिरक्षा रिपोटिंग की स्वतंत्र शाखा विकसित नहीं हो पाई थी। स्थितियां अब तेजी से बदल रही है। कारगिल युद्ध के बाद से भारतीय मीडिया में "प्रतिरक्षा रिपोर्टिंग" का महत्व समझा जाने लगा है। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी श्रीमती शालीना चतुर्वेदी द्वारा संकलित जानकारी के अनुसार कारगिल युद्ध में मेजर पुरूषोत्तम चौबें ने दोहरी भूमिका निभाई थी। हथियारों से लैस वह युद्ध क्षेत्र में डटे ही थे, परंतु उसके साथ ही समर-रिपोर्टिंग का दायित्व भी वह समय-समय पर संभालते रहे। पत्रकार मित्रों की जान बचाते हुए ही मेजर चौबे ने शहादत दी थी। इसी प्रकार कर्नल जौली ने भी पत्रकारिता का विधिवत् प्रशिक्षण लिया मेरा ऐसे कुछ सेनाधिकारियों से परिचय रहा है, जो सेना से सेवानिवृत्ति लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हुए और प्रतिरक्षा विशेषज्ञ के रूप में नाम भी कमाया।२९ अध्यायों में बटी श्री पटैरया की पुस्तक में भारतीय महाद्वीप के संदर्भ में भारत की सुरक्षा चिंताओं को रेखांकित करते हुए, देश की सामरिक शक्ति तीनों सेनाओं थल, जल और नभ की न केवल सार्मथ्य की व्यवस्था की गई है, बल्कि अतीत में हुए रूद्धों का सिलसिलेवार विवरण भी दिया गया है। निश्चिततौर पर यह पुस्तक केवल प्रतिरक्षा पत्रकारिता के छात्रों के लिए उपयोगी होगी, बल्कि उन लोगों को भी पसंद आएगी, जो भारतीय उपमहाद्वीप के रक्षा संदर्भो को, अपनी भाषा में पढ़ना चाहते है।
sabhar-dakhal.net

Friday, December 04, 2009

गैस ट्रेजिडी पर भास्कर की अदभुत श्रधान्जली

भोपाल। दुनिया में कई काम अदभुत होते हैं कुछ नेक नियत के साथ तो कुछ ग़लत नियत के साथ। लेकिन दैनिक भास्कर ने गैस ट्रेजिडी पर जिस तरह से श्रधांजलि दी वह अदभुत है, न केवल मानवीयता के लिहाज से बल्कि पत्रकारिता में भी एक मिसाल है। शायद इसी लिए भास्कर सबसे अलग है। इसके पहले केवल नई दुनिया ने आपातकाल के समय पेज खाली देकर लोगों को सही मायने में आपातकाल का अहसास दिलाया था। इस भास्कर ने २ दिसंबर की कलि रात को हुए हादसे के लिए ३ दिसंबर के अख़बार के सभी पेज ब्लेक एंड व्हाइट रखे। ३ दिसंबर की सुबह जब लोगों ने अख़बार पड़ा तो उनको २५ साल पहले हुई घटना का अहसास हुआ। आम और खास ने उस रात को महसूस किया। इसके लिए भास्कर की टीम बधाई और साधुवाद की पात्र है। भास्कर ने ३ दिसंबर को जो कंटेंट लिया वहभी लाजवाब है। एक बानगी उस हादसे की भास्कर के द्वारा।

गैस ट्रेजिडी पर भास्कर बना नेट की दुनिया में चर्चा का विषय

गैस कांड में छा गए दैनिक भास्कर और इंडिया टीवी
भोपाल गैस त्रासदी को २५ बरस बीत गए हैं ! इन २५ सालों में मध्यप्रदेश में बहुत कुछ बदला हैं , नहीं बदला हैं तो सिर्फ गैस पीड़ितों का दुःख-दर्द इस दर्द और दुःख को इस बार खबरिया चैलनों और अख़बारों ने भरपूर जगह दी टेलीविजन चैनल्स पर इंडिया टीवी और स्टार न्यूज़ ने इसमें बाजी मरी तो अख़बारों में दैनिक भास्कर इसके कवरेज में टॉप पर बना रहा भोपाल के गैस पीड़ितों से जुड़े दुःख-दर्द को बड़े अख़बार और टेलीविजन भुला चुके थे लेकिन गैस त्रासदी के २५ साल पूरा होने पर टेलीविजन और अख़बार एक बार फिर सकारात्मक सक्रिय भूमिका में नज़र आए २५ सालों को याद कर दैनिक भास्कर, भोपाल में ब्लैक एंड व्हाइट छपा वहीँ वरिष्ट पत्रकार राजकुमार केशवानी के संपादन में गैस कांड पर एक दस्तावेज प्रकाशित किया गया हैं जिस कारण भास्कर एक बार फिर सिरमोर साबित हुआ हैं भास्कर के ऐसे प्रयोग उसे दूसरे अख़बारों से अलग बना देते हैं भोपाल गैस कांड की २५ वीं बरसी पर इस बार न्यूज़ चैनल भी पूरी तैयारी के साथ नज़र आए स्टार न्यूज़ और इंडिया टीवी ने इसमें बाजी मारी वहीँ सबसे आगे और सर्वक्षेष्ठ का दम भरने वाला आज तक इस मामलें में फिसड्डी साबित हुआ गैस पीड़ितों की आवाज बुलंद करने के लिए बने कार्यक्रम में इंडिया टीवी का "नरसंहार" इस तरह के कार्यक्रमों में सर्वक्षेष्ठ रहा दूसरे नंबर पर स्टार न्यूज़ का "टैंक नं। ६१०" रहा तीसरे नंबर पर एन डी टीवी के बेहतरीन कवरेज को माना जा सकता हैं स्टार न्यूज़ ने हांलाकि इस कार्यक्रम को बनाने के लिए अपने एक दर्जन लोगो को लगाया और भरपूर पैसा खर्च किया लेकिन इस सब के बावजूद वह उतना कैचिंग नहीं बना जितना इंडिया टीवी का "नरसंहार" भोपाल गैस त्रासदी पर बने कार्यक्रमों से एक बात फिर साफ़ हो गई कि विज्युअल , स्क्रिप्ट और कुल मिलाकर पैकेजिंग अच्छी हो तो दर्शक हर खबर देखता हैं स्टार न्यूज़ के ब्रजेश राजपूत और उनके एक दर्जन साथी "टैंक नं. ६१० को" लाव लश्कर के साथ तैयार कर रहे थे तो बाकी चैनल के रिपोर्टर अकेले अपनी कैमरा टीम के साथ लगे थे इंडिया टीवी के अनुराग उपाध्याय के "नरसंहार" और एन डी टीवी की रुबीना खान शापू के कवरेज को इस मामले पर एक मिसाल माना जा सकता हैं यह पहला मौका हैं जब चैनल और अख़बार एक साथ किसी एक जन त्रासदी से जुड़े मामले पर एक राय नज़र ही नहीं आए उन्होंने आम लोगो कि आवाज भी जमकर बुलंद की

साभार-दखल नेट

Friday, November 20, 2009

एक ही तो बोलता है, इसी की बोलती बंद कर दो.

भोपाल। मुंबई में ibn7 के ऑफिस पर हमला बोलकर शिवसैनिकों ने जाता दिया की वे अपने खिलाफ किसी को नही बोलने देंगे। फ़िर चाहे वह मीडिया ही क्यों न हो। ऐसा हो भी क्यों नही। जब सरकार और कानून खामोश रहेगा तो सिव्सैनिकों के होसलें तो बढेंगे ही। शिवसैनिक और राज ठाकरे के खिलाफ अब केवल न्यूज़ चेनल ही बोल रहे थे। इस हमले के बाद भी क्या होना है। सरकार आलोचना करेगी और चुप बेथ जायेगी लेकिन क्या आपको लगता है की शिवसैनिकों के हाथों से पिटने वाले चेनल के कर्मचारी अब बेखौफ होकर काम कर पाएंगे।
अन्य ब्लॉग द्वारा लिखी गई टिप्पड़ियाँ
शिव सैनिकों का आईबीएन7 आफिस में तांडव
अभी-अभी खबर मिली है कि शिव सेना के दर्जनों उत्पातियों ने मुंबई में हिंदी न्यूज चैनल 'आईबीएन7' और मराठी न्यूज चैनल 'आईबीएन लोकमत' के आफिस पर हमला बोल दिया है। आईबीएन नेटवर्क के इन दोनों चैनलों के मीडियाकर्मियों को शिव सैनिकों मारा-पीटा और कपड़े तक फाड़ डाले। आईबीएन आफिस के सामान और संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया। इन शिव सैनिकों ने आईबीएन के मीडियाकर्मियों को शिव सेना को लेकर निगेटिव रिपोर्टिंग न करने की चेतावनी दे डाली। बताया जा रहा है कि शिव सेना के इस तांडव से 'आईबीएन7' और 'आईबीएन लोकमत' के मुंबई आफिस का कामकाज कई घंटे ठह रहा। मीडिया के घर में घुसकर शिव सेना के लोगों द्वारा किए गए इस तांडव से मुंबई समेत पूरा देश स्तब्ध है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण ने शिव सेना के इस हमले की निंदा की है।
अभी तक उत्तर भारतीयों को मुंबई में निशाना बनाने वाली शिव सेना ने एक प्रमुख मीडिया संस्थान पर हमला कर संकेत दे दिया है कि वह अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकती है। चौथे स्तंभ को निशाना बनाना और निगेटिव रिपोर्टिंग न करने की चेतावनी देना स्पष्ट करता है कि शिव सेना खोई हुई सत्ता को हासिल करने के लिए और चुनावों में पराजय से पैदा हुई निराशा को खत्म करने के लिए एक बार फिर अपने फासीवादी एजेंडे पर चल पड़ी है। शिव सेना के राज और उद्धव, दो ठाकरे परिवारों में बंट जाने से दोनों के बीच अब होड़ सी लग गई है खुद को हिंदी विरोधी और महाराष्ट्र प्रेमी दिखाने की। इसी एजेंडे के तहत राज ठाकरे के लोगों ने हिंदी में शपथ लेने पर अबू आजमी को विधानसभा में थप्पड़ रसीद किया था। इस कृत्य की जब देश भर में आलोचना हुई। इसके बाद शिव सेना वालों ने सचिन को निशाने पर लेकर मराठी कार्ड खेला। शिव सेना के इस रवैए की इलेक्ट्रानिक मीडिया ने जमकर आलोचना की। लगता है, उसी का हिसाब करने के उद्देश्य से आईबीएन7 के मुंबई आफिस पर हमला किया गया। यह हमला किसी एक न्यूज चैनल के आफिस पर नहीं बल्कि पूरी मीडिया, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया पर है।

अभी-अभी खबर मिली है कि शिव सेना के दर्जनों उत्पातियों ने मुंबई में हिंदी न्यूज चैनल 'आईबीएन7' और मराठी न्यूज चैनल 'आईबीएन लोकमत' के आफिस पर हमला बोल दिया है। आईबीएन नेटवर्क के इन दोनों चैनलों के मीडियाकर्मियों को शिव सैनिकों मारा-पीटा और कपड़े तक फाड़ डाले। आईबीएन आफिस के सामान और संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया। इन शिव सैनिकों ने आईबीएन के मीडियाकर्मियों को शिव सेना को लेकर निगेटिव रिपोर्टिंग न करने की चेतावनी दे डाली। बताया जा रहा है कि शिव सेना के इस तांडव से 'आईबीएन7' और 'आईबीएन लोकमत' के मुंबई आफिस का कामकाज कई घंटे ठह रहा। मीडिया के घर में घुसकर शिव सेना के लोगों द्वारा किए गए इस तांडव से मुंबई समेत पूरा देश स्तब्ध है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण ने शिव सेना के इस हमले की निंदा की है।
अभी तक उत्तर भारतीयों को मुंबई में निशाना बनाने वाली शिव सेना ने एक प्रमुख मीडिया संस्थान पर हमला कर संकेत दे दिया है कि वह अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकती है। चौथे स्तंभ को निशाना बनाना और निगेटिव रिपोर्टिंग न करने की चेतावनी देना स्पष्ट करता है कि शिव सेना खोई हुई सत्ता को हासिल करने के लिए और चुनावों में पराजय से पैदा हुई निराशा को खत्म करने के लिए एक बार फिर अपने फासीवादी एजेंडे पर चल पड़ी है। शिव सेना के राज और उद्धव, दो ठाकरे परिवारों में बंट जाने से दोनों के बीच अब होड़ सी लग गई है खुद को हिंदी विरोधी और महाराष्ट्र प्रेमी दिखाने की। इसी एजेंडे के तहत राज ठाकरे के लोगों ने हिंदी में शपथ लेने पर अबू आजमी को विधानसभा में थप्पड़ रसीद किया था। इस कृत्य की जब देश भर में आलोचना हुई। इसके बाद शिव सेना वालों ने सचिन को निशाने पर लेकर मराठी कार्ड खेला। शिव सेना के इस रवैए की इलेक्ट्रानिक मीडिया ने जमकर आलोचना की। लगता है, उसी का हिसाब करने के उद्देश्य से आईबीएन7 के मुंबई आफिस पर हमला किया गया। यह हमला किसी एक न्यूज चैनल के आफिस पर नहीं बल्कि पूरी मीडिया, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया पर है।

मराठी न्यूज चैनल आईबीएन लोकमत के मुंबई आफिस में कार्यरत और घटना के समय मौजूद पत्रकार संदीप चह्वाण ने हमले के बारे में बताया कि हमलावर 'आईबीएन लोकमत' के एडिटर इन चीफ निखिल वागले को तलाशते-पूछते आफिस में घूम रहे थे। वे निखिल वागले को सबक सिखाने की बात कह रहे थे। उल्लेखनीय है कि बाल ठाकरे ने सचिन को लेकर जो टिप्पणी की थी, उसका जबर्दस्त प्रतिवाद निखिल वागले ने किया था। संदीप चह्वाण के मुताबिक हमलावरों के हाथ में लोहे के राड, बेसबाल बैट और क्रिकेट के विकेट थे। इस बीच, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण ने हमले की निंदा की और कहा कि हमलावरों को हर हाल में दंडित किया जाएगा। अशोक चह्वाण के मुताबिक उन लोगों को बिलकुल अंदाजा नहीं था कि ऐसा कुछ होने जा रहा है। इस हमले के पीछे जो लोग भी हैं, उन्हें सबक सिखाया जाएगा।
किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह पत्रकारों पर हमला करे। दुनिया जल्द ही देखेगी कि हम लोग क्या कार्यवाही करते हैं। महाराष्ट्र के गृह मंत्री पाटिल ने भी कहा है कि इस बार हमलावर किसी भी तरह बच नहीं पाएंगे। उन्हें कठोर से कठोर सजा दिलाई जाएगी ताकि आगे वे किसी मीडिया हाउस पर हमला करने की सोच भी न सकें। लोकसत्ता के संपादक कुमार केतकर ने कहा कि इस घटना की पूरी मीडिया इंडस्ट्री द्वारा निंदा की जानी चाहिए। महाराष्ट्र सरकार को ऐसी घटनाओं को न होने देने के लिए प्रयास करना होगा। यह बेहद गंभीर मामला है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस बीच, देश भर के मीडिया हाउसों ने शिव सैनिकों के इस हमले की कड़ी निंदा करनी शुरू कर दी है। मुंबई में पत्रकारों ने एकजुटता व्यक्त करते हुए ऐसे हमलों से न डरने और आगे भी शिव सेना को लेकर आलोचनात्मक रिपोर्टिंग करने का ऐलान कर दिया है।

पुणे में भी आईबीएन आफिस पर हुआ हमला
तस्वीरों से साफ है, मकसद मीडिया को आतंकित करना था : सिर्फ मुंबई में ही नहीं बल्कि पुणे में भी आबीएन के आफिस पर शिव सैनिकों ने हमला किया। दोनों जगहों पर एक साथ हमले से पता चल रहा है कि शिव सैनिकों ने हमले के लिए पूरी तैयारी की थी। वीडियो और तस्वीरों को देखने से साफ पता चलता है कि शिव सैनिक मीडिया को आतंकित करने के मकसद से यह हमला किया है। पत्रकारों के कपड़े फाड़ना, उन्हें पीटना, कंप्यूटर व अन्य सामान तोड़ना यह बताता है कि वे मीडिया को यह संकेत देना चाहते थे कि मीडिया भी शिव सेना की पहुंच से दूर नहीं है और अगर निगेटिव रिपोर्टिंग की गई तो परिणाम भुगतना पड़ेगा। मीडिया पर शिव सैनिकों के इस सुनियोजित हमले के खिलाफ पूरे देश में आक्रोश की लहर है।
हर दल के नेता शिव सैनिकों के इस कुकृत्य के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं। मीडिया का मुंह बंद करने के लिए हमला करने जैसी वीभत्स कार्रवाई को राजनीतिक पतन का चरम माना जा रहा है। खबर है कि फिलहाल 7 लोगों को मुंबई पुलिस ने हमले के आरोप में गिरफ्तार किया है। मीडिया के लोग सिर्फ गिरफ्तारी से संतुष्ट नहीं है।
सीएनएन आईबीएन के एडिटर इन चीफ और वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने मांग की है कि इस बार हमले के पीछे जो बड़े नेता हैं, उनको गिरफ्तार किया जाना चाहिए और दंडित करना चाहिए। सिर्फ गिरफ्तारी से काम नहीं चलेगा। पहले भी मीडिया पर हमले के मामले में लोग गिरफ्तार हुए और जमानत पर छूट कर बाहर आ गए।

सभी तीन टिप्पड़ी bhadas4media से साभार

Thursday, November 19, 2009

जमीन के लिए संघर्ष जारी

भोपाल। मध्य प्रदेश की राजधानी में जमीन के लिए पत्रकारों में संघर्ष जारी है। दरअसल मामला अब जमीन का नही बल्कि अपनी हैसियत दिखने का बन गया है। जमीन के मामले में भोपाल से संचालित होने वाली वेबसाईट दखल लगातार खुलासे कर रही है। आई ४ मीडिया उन सभी आर्टिकल को अपने पेज पर प्रकाशित कर इस अभियान में सहयोग दे रही है।
सरकारी जमीन की बन्दरबाँट करने वाले पत्रकारों में घमासान
शैफाली गुप्ता राजधानी पत्रकार गृह निर्माण सहकारी संस्था के चुनाव के बाद सेन्ट्रल प्रेस क्लब के पैनल में घमासान मचा हुआ हैं संस्था के अब तक अध्यक्ष रहे रामभुवन सिंह कुशवाह यह पद छोड़ना नहीं चाहते जबकि प्रेस क्लब के लोग कुशवाह को बहार का रास्ता दिखाना चाहते हैं यही वजह हैं कि अध्यक्ष को लेकर हुई पहली बैठक में कुल जमा १० लोग मिलकर आमराय से अध्यक्ष का नाम तय नहीं कर पाए भोपाल राजधानी पत्रकार गृह निर्माण सहकारी संस्था के चुनाव के बाद माना जा रहा था कि सब कुछ ठीक-ठाक हो जायेगा , लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा , आपसी मनमुटाव के चलते संस्था के संचालकों कि पहली बैठक से परिवर्तन पैनल के एक मात्र सदस्य सुरेश शर्मा को इसमें नहीं बुलाया गया वही सेन्ट्रल प्रेस क्लब के १० सदस्य मिल कर संस्था का नया अध्यक्ष तय नहीं कर पाए खबर हैं कि संस्था के अब तक अध्यक्ष रामभुवन कुशवाह इस पद को छोड़ना नहीं चाहते हैं वही संस्था के पाँच संचालक कुशवाह के खिलाफ हैं वह उनको हटा के उनके कार्यकाल कि जाँच करवाना चाहते हैं संस्था और प्रेस क्लब के अधिकांश लोग कुशवाह से नाराज हैं और उन्हें उपाध्यक्ष तक बनाना नहीं चाहते हैं पहली बैठक में ही जब इस मामले पर आम राय नहीं बनी तो अध्यक्ष और उपाध्यक्ष कौन बनेगा , इसका जिम्मा यूएन आई के अरुण कुमार भंडारी और हिंदुस्तान टाइम्स के एन के सिंह को सौंपा गया हालाँकि यह दोनों भी खुद अध्यक्ष बनने के लिए खासे लालायित नज़र आ रहे हैं वर्ना भंडारी को दिल्ली तबादले के बाद यहाँ आकर छोटा सा चुनाव नहीं लड़ना पड़ता और एन के सिंह को भी अपनी गरिमा के विपरीत जाकर अपने पुत्रों की आयु के लोगो से दो-दो हाथ नहीं करना पड़ते वहीँ खबर हैं कि संस्था के तमाम श्रमजीवी पत्रकारों ने संचालक मंडल के वह शपथ पत्र मांगे हैं ,जो उन्होंने जमीन कब्जाने के लिए दिए हैं , पत्रकारों का मानना है कि अधिकांश लोगों ने झूटे शपथ पत्र दिए हैं इस बीच संस्था की एक सदस्य श्रुति अनुराग की संचालक मंडल को लिखी चिठ्ठी से हडकंप मच गया हैं , इस चिठ्ठी से संचालक मंडल के सदस्य बगले झाँकने को मजबूर हो गए हैं इस चिठ्ठी में इनके आलीशान मकानों की पोल खुल गई हैं और यह सवाल खड़ा हो गया हैं कि जब इनके पास पहले से मकान और कोठियां हैं तो इन्हें गरीब पत्रकारों को दी जाने वाली रियायत दर कि जमीन कि जरुरत क्या हैं
लेखक दखल का संचालन कर रही शेफाली हैं।

Monday, November 16, 2009

असली पत्रकार कौन वह जो जुगाड़ कर जमीन हासिल कर सके

भोपाल। राजधानी में भूमाफिया का मायना बदलता जा रहा है। अब तक केवल बिल्डर और उद्योग पति ही भूमाफिया बन्ने का हक़ रखते थे या फ़िर वही बनते थे। लेकिन अब ऐसा नही रहा। इस मामले पत्रकार काफी आगे निकलते जा रहे हैं। जब मामला जमीं का है तो फ़िर टकराव तय है। बस इसी मुद्दे को खंगाला है इंडिया टीवी के अनुराग उपाध्याय ने।
अनुराग उपाध्याय तुम आसमा की बुलंदियों से जल्द लौट आना,
हमें दो जमीन के मसाले पर बात करना हैं
यह शेर यूँ ही याद नहीं आया, भोपाल में गरीब पत्रकारों को मिलने वाली जमीन हड़पने की बात आई तो तमाम सारे वे नकचढ़े लोग जमीन पर आ गए हैं जो हमेश आसमान में रहा करते थे। एकदम ज़मीन के लिए वैसे ही टूट पड़े हैं जैसे गिद्ध या चील लाश पर टूट पड़ते हैं। जब-जब नियत में खोट हो तो ऐसी उलटबांसी देखने को मिल जाती हैं। भोपाल में राजधानी पत्रकार गृह निर्माण सहकारी संस्था में इस समय घमासान मचा हुआ हैं। यहाँ कुछ प्रेस मालिक, सम्पादक सरकारी अधिकारी और कुछ बड़े पत्रकार एकदम जमीनखोर हो गए हैं। एक-एक प्लाट के लिए मारामारी मची हुई हैं। संस्था के अध्यक्ष रामभुवन सिंह कुशवाह ने प्लाट ले लिया। अपने पत्रकार बेटे अनिल सिंह कुशवाह को प्लॉट दिलवा दिया और अपने दूसरे बेटे विजय सिंह को प्लॉट दिलवाने के लिए उसके पिता की जगह शिवराज के डंपर कांड से प्रेरणा लेकर आर।बी।सिंह लिख दिया।आपको याद होगा डंपर कांड में शिवराज की जगह एस,आर,सिंह लिखा गया था यह हैं जमाने को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वालो की सच्चाई। अपने ही गरीब गुरबे साथियों के हक़ पर कुछ लोग कुंडलिया मार के बैठ गए हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सालो से सरकारी मकानों में कब्जा जमाये पत्रकारों और गरीब श्रमजीवी पत्रकारों के लिए सस्ते में ज़मीन देने की पहल की। पहले अभिव्यक्ति गृह निर्माण सहकारी समिति में लगभग सौ पत्रकारों को जमीन दी गई, उसके बाद राजधानी पत्रकार ने काम शुरू किया। इस संस्था का शुरू में काम तो ठीक चला लेकिन बाद में इसमें जमीन माफिया ने पत्रकार के रूप में प्रवेश कर लिया। एकदम परकाया प्रवेश की तरह। राम नाम की लूट मच गई। अध्यक्ष ने अपने बेटो को प्लॉट दे दिए, कई सरकारी अफसर और उनके नातेदार पत्रकारों के भेष में नजर आने लगे। हालात इतने बिगड़ गए कि संस्था के चुनाव में घमासान मच गया। शिकायत मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव राजस्व और लोकायुक्त तक पहुँच गई। उम्मीद की जाना चाहिए कि जांच में दूध का दूध होगा और गरीब पत्रकार और ज़मीन माफिया पत्रकार के बीच की जंग निर्णायक साबित हो जाएगी।शलभ भदौरिया, मध्यप्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष हैं। वह कहते हैं पहले पत्रकार कालोनी में गड़बड़ हुई थी, तब देवेन्द्र खरे जैसे पत्रकार को जेल जाना पड़ा था। अब जो कुछ राजधानी पत्रकार सहकारी समिति में चल रहा हैं इसमें भी जो गड़बडिया हुई हैं उसके चलते यहाँ भी कई लोग जेल जायेंगे। शलभ भदौरिया कहते हैं 1996 में हमने सरकार से कहा था पत्रकारों को सरकारी माकन में रहने का शौक नहीं हैं, श्रमजीवी पत्रकारों को सस्ते में जमीन दी जाए। अब जमीन दी गई तो श्रमजीवी पत्रकारों की जगह अखबार मालिक, सम्पादक, कुछ जमीन चाहने वाले अधिकारी इसमें घुस गए। सारे रैकेटियर लोगो का जमावड़ा हो गया हैं। ज़मीन की बंदरबांट हो गई हैं।पूरे मसले में शलभ भदौरिया एक-एक आदमी के शपथ-पत्र की जांच करवाने की मांग कर रहे हैं ताकि गरीब श्रमजीवी पत्रकारों को उनका हक़ मिल सके।राजधानी पत्रकार गृह निर्माण समिति में मचे घमसान का सूत्रधार दैनिक छत्तीसगढ़ के ब्यूरो चीफ अतुल पुरोहित और स्वदेश के डॉ. नवीन जोशी को माना जा रहा हैं। अतुल पुरोहित कहते हैं-"यह लड़ाई बहुत आगे तक जायेगी। अध्यक्ष ने खुद प्लॉट लिया बेटो को दे दिया, भाई, भतीजे, बेटा, बेटी, पत्नी, अखबार मालिक, बिल्डर क्या इनके लिए सरकार ने जमीन दी हैं? पत्रकारों की जमीन मूल पत्रकार छोड़ सबको बाँट दी गई हैं।" स्वदेश के डॉ. नवीन जोशी कहते हैं-"क्या गड़बड़ी नहीं हुई, असल पत्रकारों के साथ नाइंसाफी हो रही हैं। ऐसे नाम हैं जिनका पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं हैं। दीपा ज्ञानचंदानी, राजकुमारी चौटरानी, दैनिक नई दुनिया के चारो मालिको को जमीन दी जा रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार एन.के.सिंह दूसरी पत्रकार कालोनी में जमीन ले चुके हैं। उनको, उनके बेटे राहुल सिंह को जमीन दी जा रही हैं। ऐसे लोगो के शपथ पत्रों की जांच हो और असल पत्रकारों को जमीन दी जाए। जमीन से जुड़े पत्रकार सीताराम ठाकुर कहते हैं-"वास्तविक पत्रकारों को उनका हक़ मिले और राजधानी पत्रकार में फर्जीवाडे के दोषी सामने आये। मैं कलेक्टर, मुख्य सचिव राजस्व से पूरे घोटाले की जांच की मांग कर रहा हूँ।"राजधानी पत्रकार गृहनिर्माण सहकारी संस्था खड़ी करने वाले सेन्ट्रल प्रेस क्लब के वरिष्ठ पत्रकार विजय दास कहते हैं-"कोई संस्था सौ प्रतिशत सही काम नहीं करती। जिन गड़बडियों की बात की जा रही हैं उसे ठीक किया जाएगा। अच्छा हैं इलेक्शन हो रहे हैं, कई सोसायटियों में तो 12 सालो से चुनाव तक नहीं हुए हैं। हम तो यही चाहते हैं मनमुटाव न हो, जो पात्र हैं उन्हें ही ज़मीन दिलाई जायेगी। हमारा सेन्ट्रल प्रेस क्लब का पैनल मैदान में हैं।"इस मामले में कलेक्टर से लेकर मुख्यमंत्री और लोकायुक्त तक शिकायते की गई हैं और कहा गया हैं कि सहकारिता कानूनों की धज्जिया कैसे उड़ती हैं। यह देखना हैं तो राजधानी पत्रकार गृह निर्माण समित के कारनामे देख ले। इस शिकायत में कहा गया हैं कि माध्यम दर्जे के असल पत्रकारों को दी जाने वाली जमीन हड़पने के लिए सौ से ज्यादा लोगो ने झूठे शपथ-पत्र दिए हैं। यहाँ गरीब पत्रकारों के प्लॉट नवभारत के मालिक सुमित महेश्वरी, संध्या प्रकाश के मालिक भरत पटेल, स्वदेश के मालिक राजेंद्र शर्मा, अक्षत शर्मा, देशबंधु के मालिक पलाश सुरजन दैनिक नई दुनिया के मालिक राजेंद्र तिवारी, सुरेन्द्र तिवारी, उनके बेटे अपूर्व तिवारी और विश्वास तिवारी हैं।ई एम एस के मालिक सतन जैन, उनके बेटे सौरभ जैन और प्रदेश टाइम्स के अजय हीरो ज्ञानचंदानी को दिए जा रहे हैं। इन लोगो को श्रमजीवी पत्रकार कैसे माना जा सकता हैं। इन लोगो के कारोबारों और संपत्तियों की जांच की मांग मुख्यमंत्री से की गई हैं।वही मुख्यमंत्री और लोकायुक्त को की गई एक अन्य शिकायत में कहा गया हैं कि मुख्यमंत्री निवास पर तैनात तीन अधिकारी भी पत्रकारों की जमीन हड़पना चाहते हैं। इन्हें दी गई सूची में कहा गया हैं कि आला दर्जे के सरकारी अफसरान कैसे राजधानी पत्रकार गृह निर्माण समिति में घुस गए इसकी जांच बेहद जरुरी हैं क्योंकि राजधानी पत्रकार गृह निर्माण के नाम पर कोई भू-माफिया सोची समझी साजिश के तहत पत्रकरों को उनके हक़ से महरूम कर रहा हैं। इन अधिकारियो की चल-अचल संपत्ति की जांच की मांग के साथ इनकी सूची और इनकी जमीन मकानों की जानकारी भी दी गई हैं। यह अधिकारी हैं- पुष्पेन्द्र शास्त्री,प्रकाश दीक्षित ,डॉ कमर अली शाह, आशिक मनवानी , उमा भार्गव , आर. एम. पी. सिंह, रोहित मेहता, शांता/प्रतिश पाठक, आस्था/लाजपत आहूजा, शोभा साकल्ले , रवि उपाध्याय, असीम/ताहिर अली, हर्षा/रामू मारोड़े, अर्चना/सुरेश गुप्ता, श्वेता/रविन्द्र पंड्या, अंजना, वनिता श्रीवास्तव IAS की पत्नी , अनिल खन्ना एस बी आई अधिकारी रिटायर्ड जमीन के लिए मची धामा चौकड़ी में सब अपने-अपने हित साधने में लगे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने जब राजधानी पत्रकार गृह निर्माण सहकारी समिति को जमीन देने को कहा था तो यह स्पष्ट कर दिया था कि इसमें लगभग 40 कैमरामैन को प्लॉट दिए जाए लेकिन हुआ इसका उल्टा। इनकी जगह भर लिया गया अखबार मालिको और सरकारी अफसरों को। इसी बात को लेकर पत्रकारिता से सम्बन्ध और असंबंध लोगो के बीच भिडंत हो गई और राजधानी पत्रकार गृह निर्माण सहकारी संस्था एक अखाड़े में तब्दील हो गई। सहकारिता से जुड़े लोग कहते हैं कि अगर इस मामले ने तूल पकड़ा तो कई सरकारी अफसरों को लानत का शिकार बनना पड़ेगा और कई लोग सीखचों में भी नजर आ सकते हैं। जाहिर हैं जमीन हमेशा झगड़े की जड़ बनी हैं तो इस बार भी...! लेकिन मामला असली और नकली पत्रकारों का हैं तो बात बहुत दूर तक जाएगी।

क्या भूमाफिया पत्रकारों के खिलाफ भी कार्रवाई करेंगे शिवराज

भोपाल। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल इन दिनों झीलों के साथ भूमि घोटालों के लिए भी जानी जा रही है। हाल ही ग्रह निर्माण समितियों को लेकर कई तरह की बातें सामने आई हैं। इनमे से बड़े पत्रकारों द्वारा छोटे प्र्त्रकारों के हक़ पर कब्ज़ा करनी की बात भावी पत्रकारों के लिए ठीक नही है। अलग-अलग वेबसाइट पर इसको लेकर काफी कुछ लिखा गया है। उन सभी को आई ४ मीडिया में साभार प्रकाशित किया जा रहा है।
भोपाल में भूखण्ड घोटाले को लेकर चर्चा में आयी राजधानी गृह निर्माण समिति के संचालक मंडल के चुनाव भोपाल स्थित होटल पलाश मे संपन्न हो गए। चुनाव में पुरानी पैनल की रणनीति खूब काम आयी और उसके 11 में से 10 संचालक विजयी घोषित हुए। परिवर्तन पैनल को एक संचालक से संतोष करना पड़ा। मतदान स्थल पर सवेरे से ही इस बात की चर्चा थी कि सेन्ट्रल प्रेस क्लब पैनल ही चुनाव में सफल होगा।
कारण साफ़ था, वो ये कि समिति में जो 226 सदस्य हैं उनमें सें अधिकतर समिति के पुराने पदाधिकारियों की कृपा से सदस्यता प्राप्त कर सके हैं और उन्हीं के कारण उन्हें कौड़ियों के मोल प्लॉट मिले हैं। यही कारण रहा कि समिति के सदस्यों ने पुराने पैनल पर भरोसा किया। समिति के नव निर्वाचित सदस्यों में रामभुवनसिंह कुशवाह, विजय दास, अरूण भण्डारी, अक्षत शर्मा, केडी शर्मा, एनके सिंह, वीरेंद्र सिन्हा सेन्ट्रल प्रेस क्लब पैनल से और सुरेश शर्मा परिवर्तन पैनल से निर्वाचित हुए। अन्य पिछड़ा वर्ग से इंद्रजीत मौर्य निर्वाचित घोषित हुए। महिला वर्ग के आरक्षित दो पदों पर सुचंदना गुप्ता और कौशल वर्मा पहले ही निर्विरोध निर्वाचित हो चुकी थीं।
भोपाल से अरशद अली खान की रिपोर्ट
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भोपाल की पत्रकार श्रुति अनुराग ने राजधानी पत्रकार गृह निर्माण समिति के संचालक मंडल को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में उन्होंने अपने नाम एलाट जमीन को प्रतीक्षा सूची में पड़े किसी सबसे गरीब पत्रकार को देने की बात कही है, साथ ही संचालक मंडल के सदस्यों पास पहले से मौजूद जमीन-मकानों का उल्लेख करते हुए फिर से प्लाट लिए जाने पर आपत्ति जताई है। श्रुति ने उनसे ये प्लाट गरीब पत्रकारों को देने की भी अपील की है। पूरा पत्र इस प्रकार है-
प्रति,
संचालक मंडल
राजधानी पत्रकार गृह निर्माण सहकारी समिति
भोपाल
महोदय,
राजधानी पत्रकार गृह निर्माण सहकारी समिति में भोपाल के निम्न आय और मध्यम आय के श्रमजीवी पत्रकारों की अनदेखी कर उसमें आप लोगों ने जिस तरह बेटे-बेटियों, पत्नियों, भतीजों, भूमाफियाओं, अपने सरकारी अधिकारी मित्रों को भूखंड देने की कोशिश की है, वह 'काबिल-ए-तारीफ' है। यही वजह है कि हमारी संस्था के असल श्रमजीवी पत्रकार आपके विरोध में खड़े हो गए। संस्था के चुनाव में भले ही टेक्नीकली आपके पैनल के लोग जीत गए हों, लेकिन लोगों ने आपको किस डर से वोट दिये, ये आप भी जानते हैं। आपके सहयोगी साथी आपके खिलाफ खड़े हुये, यह आपकी सबसे बड़ी हार है। मुझे उम्मीद है आप अपनी गलती से सबक लेकर इस पत्रकारों की संस्था से फर्जी और गैर पत्रकारों को बाहर करने का साहस दिखायेंगे। हालांकि इसकी उम्मीद कम ही है।
वैसे भी आपमें से कुछ मेरे पिता तुल्य हैं, इसलिये मैं आपका बहुत सम्मान करती हूं और पूरे सम्मान के साथ मैं आपसे दो निवेदन करना चाहती हूं। एक तो मैं अपने आर्थिक पक्ष और कुछ आप लोगों के दोहरे मापदंड के कारण संस्था में जमीन नहीं ले सकती, अतः मेरे हिस्से का भूंखंड उस सबसे गरीब साथी को आवंटित करें जिसे आपने प्रतीक्षा सूची में डाल कर बेवकूफ बना रखा हो।
मेरा दूसरा निवेदन है कि आप में से एक अरूण कुमार भंडारी जी जिनका पंचवटी कालोनी में इतना आलीशान मकान है जैसा श्रमजीवी पत्रकार स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते। एन.के. सिंह जी जिनका भव्य बंगला रियायती दर की पत्रकार कालोनी में लिंक रोड नंबर-३ पर बना है, विजय दासजी का आलीशान करोड़ों का बंगला अरेरा कालोनी में है, वीरेन्द्र सिंहजी का चूना भट्टी में भव्य भवन है हमारी महिला साथी सुचांदना गुप्ता का भव्यतम मकान शहर की सबसे प्राइम लोकेशन रिवेरा में है जहाँ रहने की कल्पना भी भोपाल के पत्रकार नहीं कर सकते हैं। यह आप लोगों की वह संपदा है जो आपके पास नजर आती है, इसके अलावा पुश्तैनी और स्वयं के बूते कमाई संपत्ति भी होना लाजमी है, ऐसे में मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप लोगों को और जमीन की क्या आवश्यकता है अतः आप साथियों के बीच एक मिसाल पेश कर अपने अहम और जमीन की बंदरबांट की इस लड़ाई को बंद कर अपने-अपने प्लाट उन साथियों को देने का मार्ग प्रशस्त करें जो अरसे से यहाँ वहाँ किराये के मकानों में धक्के खा रहे हैं। आप लोग बड़े हैं, आप लोगों के पास इतनी जमीनें और मकान पहले से ही है फिर एक छोटे से भूखंड की क्या बिसात। यकीनन आप ऐसा करेंगे तो आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा। आपकी शान में हम जैसे लोग कसीदे करते जरूर नजर आऐंगे। आपके इस प्रयास से कई छोटे पत्रकार साथियों की जिन्दगी संवर जाएगी।
मुझे उम्मीद है जमीन और साथियों में से आप साथियों को चुनना पसंद करेंगे क्योंकि जब भी आप यहां से विदा होंगे तो जमीन तो आपका साथ नहीं देगी, मित्रों का प्यार हमेशा आपके साथ रहेगा।
आपकी
श्रुति अनुराग , भोपाल
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भोपाल के रामभुवन सिंह कुशवाह, एके भंडारी, सुरेश शर्मा, राजेंद्र तिवारी, राजेंद्र शर्मा जैसे पत्रकारों-मालिकों ने जेनुइन पत्रकारों का हक मारा : भोपाल स्थित 'राजधानी पत्रकार गृह निर्माण सहकारी समिति' के पदाधिकरियों ने पत्रकारों के लिए सस्ते दर पर सरकार से मिली भूमि को आपस में बांटकर आवासहीन पत्रकारों के अधिकारों पर न केवल अतिक्रमण किया है बल्कि शासन की आंखों मे धूल झोंककर धोखाधड़ी भी की है। जरूरतमंद पत्रकार आज भी घर की तलाश में दर-दर की ठोकरें खाते फिर रहे हैं। घर का सपना दिखाते हुए पत्रकारों की भीड़ जुटाकर राजनीति करने वालों ने एक साथ चार-चार भूखण्ड जुगाड़ लिये। इस घटना से ये भी साफ हो गया है कि मध्य प्रदेश की पत्रकारिता में धंधेबाजों का कितना दख़ल है और वे किस तरह पत्रकारिता की आड़ में धीरे-धीरे भू-माफि़या बनते जा रहे हैं। इन कथित पत्रकारों की करतूत के कारण ही समाज में पत्रकारों की इज्जत नहीं बची है। आइए, समिति के पदाधिकारियों के बारे में एक-एक कर बात करते हैं-
सबसे पहले बात करते हैं समिति के अध्यक्ष रामभुवन सिंह कुशवाह की। उन्होंने एक भूखण्ड अपने और तीन भूखण्ड अपने पुत्रों के नाम कर लिए। शातिरपन देखिए कि पत्रकारों के सामने नंगे होने से बचने के लिए अपने पुत्र विजय सिंह के पिता के नाम की जगह अपना पूरा नाम लिखने की बजाट शार्ट नाम आरबी सिंह लिख दिया ताकि कोई ये न समझे कि यह रामभुवन सिंह कुशवाह का पुत्र है।
इसी प्रकार समाचार एजेंसी के एक पत्रकार एके भंडारी ने एयरपोर्ट रोड पर स्थित पंचवटी में लाखों रुपये का आलीशान बंगला होते हुए भी भूखण्ड ले लिया। सहकारिता के नियमानुसार भूखण्ड प्राप्त करने से पूर्व समिति के सदस्य को एक शपथ पत्र देना होता है जिसमें इस बात की कसम खाई जाती है कि शपथकर्ता के पास कोई मकान नहीं है। जाहिर है कि भंडारी ने प्लाट के लालच में झूठा शपथ पत्र प्रस्तुत किया है।
इसी कड़ी में शामिल हैं सुरेश शर्मा। इनके अखबार के नाम पर सरकार ने करोड़ों रुपये की जमीन आवंटित की थी लेकिन धन के लालच में इन्होंने जमीन के साथ अख़बार भी बेच दिया। सुरेश शर्मा के पास पहले से निजी मकान है। उसके बाद भी सरकारी मकान के मज़े ले रहे हैं। प्लाट जुगाड़ा सो अलग। भगवान जाने इनकी इच्छापूर्ति कब होगी।
राजेंद्र तिवारी दैनिक अख़बार के मालिक हैं। इन्होंने एक भूखंड अपने, एक अपने भाई सुरेंद्र तिवारी और एक अपने भतीजे विश्वास तिवारी के नाम बुक करा लिया।
एक अन्य दैनिक के मालिक हैं राजेंद्र शर्मा। शर्मा जी ने भी एक अपने और अपने पुत्र अक्षत शर्मा के नाम भूखण्ड लिया। मनीष शर्मा दिल्ली के एक अखबार का काम देखते हैं। इनके पास भी सिर छुपाने के लिए अच्छी खासी छत है।
समाज को दिशा देने का दम भरने वाले इन पत्रकारों से क्या पत्रकारों के हित की उम्मीद की जा सकती है? अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों के विरोध से बचने और सरकार पर दबाव बनाने के लिए इन्होंने पूर्वनियोजित तरीके से समिति में अखबार मालिकों को रखा और जनसम्पर्क विभाग के अधिकारियों को इसलिए समिति में रखा ताकि समय-समय पर वे इनके काले-जाले में पर्दा डालने में मदद कर सकें।
अरशद अली खान, पत्रकार
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गुजरात में 221 करोड़ की भास्कर प्रिंट प्लेनेट शुरू

भोपाल। भास्कर समूह ने अपने बड़ते ग्रुप में एक और उपलब्धि जोड़ ली है। समूह ने गुजरात में एक अत्याधुनिक प्लांट डाला है। ये ख़बर इसलिए यहाँ दे रहे हनी की एक अख़बार की तरक्की होती है तो मीडिया कर्मियों को भी इसका लाभ मिलता है।
भास्कर समूह के अत्याधुनिक ‘प्रिंट प्लेनेट-अहमदाबाद’ का गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व केंद्रीय उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने शनिवार को एक भव्य, गरिमापूर्ण समारोह में लोकार्पण किया।
चांगोदर में स्थित ‘प्रिंट प्लेनेट’ के लोकार्पण के साथ ही गुजराती पत्रकारिता के इतिहास में नए युग का श्रीगणोश हो गया है। अब भास्कर समूह का दिव्य भास्कर गुजराती भाषा का ऐसा पहला समाचार पत्र बन गया है जो विश्वस्तरीय अल्ट्रा-मॉडर्न एबीए मशीन से छप कर पाठकों के हाथ में पहुंच रहा है।
पूर्णतया ऑटोमेटिक एवं अत्याधुनिक प्रिटिंग-टेक्नोलॉजी से सुसज्जित करीब 221 करोड़ रुपए की लागत वाला ‘प्रिंट प्लेनेट’ एक घंटे में २.५५ लाख रंगीन प्रतियां प्रकाशित करने में सक्षम है। ‘प्रिंट प्लेनेट’ को स्थापित करने के लिए 13 माह से जर्मनी के 40 इंजीनियरों की टीमें दिन रात कार्य कर रहीं थीं।
‘प्रिंट प्लेनेट’ में काउंटिंग, स्टेकिंग, लेबलिंग एवं रेपिंग सहित प्रिंटिंग के अधिकांश काम स्वचालित तकनीक से संचालित होते हैं। इस मौके पर गुजरात विधानसभा अध्यक्ष अशोक भट्ट, ऊर्जा राज्यमंत्री भरत सिंह सोलंकी, सांसद, विधायक एवं आला पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी मौजूद थे। इससे पहले समूह के अध्यक्ष रमेशचंद्र अग्रवाल ने सभी आमंत्रित महानुभावों का स्वागत किया।

Saturday, November 07, 2009

अलविदा प्रभाषजी, अब दिलों में रहेंगे

पत्रकारिता के पितामह प्रभाष जोशी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया है। शनिवार को दोपहर 12 बजे नर्मदा नदी के किनारे उनकी इच्छा के अनुसार अंतिम संस्कार कर दिया गया. प्रभाष जोशी का गुरुवार/शुक्रवार की रात हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया था.
शुक्रवार को उनका पार्थिव शरीर मध्य प्रदेश शासन द्वारा उपलब्ध कराये गये एक विशेष विमान से इंदौर ले जाया गया था जहां उनके अंतिम दर्शन के लिए लोगों की भीड़ लगी रही. अंतिम दर्शन करनेवालों में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह और प्रभाष जोशी के पुराने मित्र तथा पूर्व राष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत भी शामिल थे.
शनिवार की सुबह 10 बजे उनका पार्थिव शरीर इंदौर से 60 किलोमीटर दूर बड़वाहा के लिए ले जाया गया. बड़वाहा में ही उनके पिता जी का अंतिम संस्कार हुआ था इसलिए प्रभाष जोशी की हार्दिक इच्छा थी कि उनका भी अंतिम संस्कार उसी स्थान पर हो जहां उनके पिता का अंतिम संस्कार किया गया था. बड़वाहा में नर्मदा के किनारे उनके ज्येष्ठ पुत्र संदीप जोशी ने उनको मुखाग्नि दी.
प्रभाष जी अंत्येष्टि के मौके पर पूर्व राष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावात के अलावा दिल्ली से गये पत्रकार रामबहादुर राय, राहुल देव, हेमंत शर्मा तथा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र शामिल हुए।

कितना भी लिखो कम पड़ ही जाएगा

भोपाल। वे क्या थे इस बारे में कुछ भी लिखना सूरज को रौशनी दिखने के बराबर ही है। में पत्रकारिता के क्षेत्र में नया हूँ और मात्र १० वर्ष में प्रभाष जे बारे में उनके नाम को जानने तक सीमित हूँ। अब वे नहीं हैं लेकिन हमारी कलम में रहेंगे। अनगिनत पत्रकार जो उनकी लाइन पर चलेंगे। प्रभाषजी को लोग कितना चाहते थे इसका प्रमाण ब्लॉग की दुनिया में लिखे गए अनगिनत लेख हैं। मीडिया मार्ग से लिए गए इस फोटो और तमाम ब्लॉग पर लिखे गए गए लेखों में से चुनिन्दा लेख अपने ब्लॉग पर साभार दे रहा हूँ, क्योंकि में खुद प्रभाषजी के बारे में कुछ लिख सकूँ ऐसी मेरी हसियत नहीं।
विनम्र श्रद्धांजलि।-भीम सिंह मीणा
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मीडिया मार्ग लिखता है
प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़े पत्रकार , उनका पार्थिव शरीर आज शाम पहुंचेगा इंदौर , कल अंतिम संस्कार
हिन्दी पत्रकारिता से शिखर पुरूष प्रभाष जोशी के निधन से स्तब्ध पत्रकारों का हुजूम आज सुबह उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़ा । गाजियावाद के वसुंधरा स्थित उनके निवास स्थान पर जाकर सैकड़ों पत्रकारों ने उनके पार्थिव शरीर पर पुष्प चढ़ाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी । प्रभाष जोशी को कल रात क्रिकेट मैच देखने के तुरंत बाद दिल का दौरा पड़ा था । कुछ ही देर में उन्हें अस्पताल ले जाया गया लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका । सुबह होते - होते उनके निधन की खबर पूरे देश में फैल चुकी थी । उनके घर के बाहर दिल्ली के सैकड़ों पत्रकार जमा हुए । हर पत्रकार की जुबान पर एक ही बात थी , प्रभाष जोशी के निधन से हिन्दी पत्रकारिता में एक ऐसा खालीपन आया है , जिसे कभी भरा नहीं जा सकता ।प्रभाष जोशी दो दिन पहले ही लखनऊ से आए थे । आज सुबह उन्हें मेघालय की यात्रा पर जाना था । लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था । प्रभाष जोशी का पार्थिव शरीर दोपहर एक बजे गांधी शांति प्रतिष्ठान ले जाया गया , वहां कुछ देर तक उनके शरीर को अंतिम दर्शन के लिए रखा जाएगा , फिर राजकीय विमान से इंदौर ले जाया जाएगा । प्रभाष जोशी चाहते थे उनकी मौत के बाद नर्मदा के किनारे की अंतिम संस्कार किया जाए ।प्रभाष जोशी के अंतिम दर्शन के लिए पत्रकारों के हुजूम में जितने लोग प्रिंट के थे , उतने ही टीवी के ।
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दिल-ए-नादाँ लिखता है
सुबह मैंने बी।बी.सी. पर जब यह खबर पढ़ी तो तुम्हें फ़ोन लगाया.तुम सो रहे होगे तो रीवा डॉ.साहब(चंद्रिका प्रसाद चंद्र)का नं.मिलाया.वो इन दिनों बीमार हैं सो उनसे भी बात न हो सकी.मेंरे भीतर खालीपन और आँसू जमा हो रहे थे.किसी से बात करके मैं हल्का होना चाहता था.एक ही बात घुल रही थी मन में कि अब जनसत्ता का संपादकीय पेज क्या सोचकर देखूँगा.चुनौती देनेवाले,अन्याय के खिलाफ़ खड़े होनेवाले हस्तक्षेप कहाँ खोजूँगा.बहुत ईमानदार,सुलझी हुई और सहारा देनेवाली आवाज़ शांत हो गई है.इस आवाज़ का इस तरह अचानक शांत हो जाना उस निडर लौ का बुझना है जो बेहद अँधेरे और उलझे वक्त में साथ देने के लिए जलती है.इस आवाज़ के पूरी तरह नियति के द्वारा चुप कर देने को सह सकना इसकी जगह को भर पाना बहुत मुश्किल है.कल रात में राजकिशोर जी को उनके ब्लाग में पढ़ रहा था तो सोच रहा था प्रभाष जोषी और राजकिशोर जनसत्ता की ये दो आवाज़ें हमारे वक्त की उपलब्धि हैं.मैं प्रभाष जी से कभी मिला नहीं पर पढने से कभी चूका नहीं.जब भी उनका कोई इंटरव्यू टी.वी.,रेडियो या बी.बी.सी.पर सुना भूल नहीं पाया.जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद लेने से इंकार किया था तो बी.बी.सी.के संवाददाता रेहान फजल ने पूछा था इसमें कितनी राजनीति है तो उनका जवाब था राममनोहर लोहिया ने कहा था धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालिक धर्म. सोनिया गांधी के इस निर्णय में भी राजनीति है पर राजनीति का रास्ता अगर त्याग से होकर जाता है तो वही सच्चा रास्ता है और दूर तक जाता है.यह अपने समय की राजनीति के मूल्यांकन की उनकी दृष्टि है.मैं इस समय में ऐसा अभागा हूँ जिसने आज तक एक भी क्रिकेट मैच पूरा नहीं देखा.पर प्रभाष जोषी का क्रिकेट पर लिखा शायद ही छोड़ा हो.वे क्रिकेट के कवि थे.मैं ख़ुद को हल्का करने के लिए आज कक्षाओं में जबरन प्रभाष जोषी पर ही बोलता रहा.एक बात जो मेंरे मुह पर बार बार आ रही थी वो ये कि प्रभाष जी को अभी दुनिया से जाना नहीं था.वो अलविदा कह गए इसमें यही तसल्ली की बात है कि क्रिकेट के इस प्रेमी को मैच देखते ही मरना था.कुछ और करते हुए वो संसार से विदा होते तो शायद उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती.लंच में घर आकर जब तुम्हारा लेख देखा तो इस बात से भर आया कि ऐसी ही बात तुम उसी वक्त में लिख रहे थे.मैं एक बात अक्सर सोचता हूँ कि आज जब बड़े से बड़ा पत्रकार ज़्यादा तनख्वाह की पेशकश पर कोई भी अखबार छोड़ सकता है तब प्रभाष जी ने अपना सर्वोत्तम जनसत्ता के लिए दिया.पेशे में सरोकार इसी रास्ते आते हैं.बड़े जनसमूह से कोई इन्हीं शर्तों पर जुड़ता है.करियरिस्ट अवदान सफल होता है पर सार्थक उदात्त श्रम ही होता है.अपने इसी स्वाभाव के कारण प्रभाष जी अवसरवाद के प्रबल आलोचक बने होंगे.उनकी भाषा सबको समझ में आती थी तो यह व्याकरण की नहीं इमानदारी की वजह से था.मैं तो उन पर लगभग निर्भर करने लगा था कि इस विषय पर प्रभाष जी को पढकर अंतिम राय बनाउँगा.अब ऐसी कोई आश्वस्ति मेरे सामने नही होगी.पिछले दिनों जगदीश्वर चतुर्वेदी आदि उनका जिस तरह चरित्र हनन कर रहे थे उससे मैं बहुत आहत था.सुबह इन्हीं महोदय की मोहल्ला लाइव पर श्रद्धांजली देखी तो चर्चित लेखक कांतिकुमार जैन का आचरण याद आ गया.कांतिकुमार जैन ने शिवमंगल सिंह सुमन का ऐसा ही चरित्र हनन चंद्रबरदाई का मंगल आचरण नामक संस्मरण लिख कर किया था.इसके कुछ ही दिनों बाद जब उनकी मृत्यु हुई तो हंस में ही बड़ी विह्वल श्रद्धांजली लिखी.ऐसे समर्थ लोग अपनी ही बात की लाज नहीं रख पाते.यह ज्यादा चिंताजनक है.प्रभाष जी का मूल्यांकन करने को काफ़ी लोग हैं.हम कहाँ लगते हैं.मैं उनके अवदान को किसी पैमाने में कस सकूँ इस लायक भी नहीं.सिर्फ़ तुमसे कुछ बाँटना चाहता हूँ.क्योंकि यह दिली मजबूरी लग रही है.यहाँ तमिलनाडु में बारिश का मौसम शुरू ही हुआ है.पिछले तीन दिन से बारिश हो रही है.सुबह खबर पढ़ने के बाद जब मैं खाना खाने बैठा तो लगा शमशान से लौटा हूँ और प्रभाष जी के अंतिम संस्कार के बाद पत्तल फाड़ने की हृदय विदारक रस्म में बैठा हूँ.मैं दिन भर समझना चाहता रहा कि जिससे एक बार भी नही मिला उसके बारे में ऐसा क्यों लग रहा है जैसे अपने ही घर का कोई बुजुर्ग हमेशा के लिए छोड़कर चला गया.इसे नियति भी मान लूँ तो इससे उदासी बढ़ती है कि अब चरमपंथियों,अवसरवादियों,भ्रष्टों,सरोकारों से विमुख लोंगों को कौन ललकार कर लिखेगा?किसकी विनम्र हिदायतें श्रेष्ठ का सम्मान करना सिखाएँगी?- शशिभूषण
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नवभारत टाईम्स ब्लोग्स लिखता है
प्रभाष जी नहीं रहे!! नहीं- नहीं, प्रभाष जोशी नाम का कोई और पत्रकार होगा... सुबह ऑफिस पहुंचते ही टीवी पर देखा तो यकीन नहीं हुआ। मौत कोई अनोखी बात नहीं। फिर भी अक्सर हैरान करती है। मैं उनसे कभी मिली नहीं लेकिन उनकी शैली और कमाल की भाषा को अपने लेखन में उतारने की हमेशा कोशिश की। याद आ रहा है वह वाकया जो एक पत्रकार मित्र रोहित ने बताया था। कई साल पहले वह ग्रेजुएशन के प्रोजेक्ट के सिलसिले में कुछ संपादकों के इंटरव्यू करने गए थे। आपसे उन्हीं की ज़ुबानी शेयर कर रही हूं प्रभाष जी के व्यक्तित्व का एक पहलू। आप भी देखें, सादा जीवन उच्च विचार का हाल तक जीवंत यह उदाहरण कैसा था...
"मुलाक़ात वाले दिन तय समय पर हम उनके निर्माण विहार वाले घर पर जा ही रहे थे कि रास्ते में एक आदमी बरमूडा शॉर्ट्स और टीशर्ट पहने हुए प्रभाष जी जैसा दिखा। अभी तक हमने प्रभाष जी को सिर्फ धोती और कुर्ते में ही देखा था इसलिए हैरानी तो हुई मगर नज़दीक जाकर उन्हें पहचान लिया। हमने बताया कि आपने मिलने का वक़्त दिया था तो उन्होंने कहा कि मैं अभी सैर करके आता हूं। तुम लोगों को घर तो पता ही है, घर जाकर बैठो। हम प्रभाष जी के घर तो पहुंच गए मगर इतनी बड़ी हस्ती के घर के अन्दर घुसने की हिम्मत नहीं हुई। गर्मी होने के बावजूद उनके घर के बाहर उनके इंतज़ार में खड़े रहे। प्रभाष जी आए और उन्होंने नाराज़ चेहरे से हम तीनों को घूरकर देखा। हमसे पूछा, जब तुम्हें अन्दर जाकर बैठने के लिए कहा था तो गर्मी में बाहर क्यों खड़े थे? मैंने इस बात को टालने की कोशिश की मगर मेरे मित्र ने कहा कि किसी ने हमें अन्दर आने के लिया कहा ही नहीं। प्रभाष जी हमें आदर के साथ अन्दर लेकर गए और अंदर घुसते ही सबसे पहले अपनी पत्नी से शिकायत की कि इन बच्चों को आपने अन्दर आने के लिए क्यों नहीं कहा। हालांकि गलती उनकी पत्नी की भी नहीं थी क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि हम उनके घर किसी से मिलने आए हैं। यह बात बेशक बहुत छोटी-सी थी, लेकिन प्रभाष जी की महानता देखिए, वह बोले कि उन्हें हमारा यानी अपने मेहमानों का यूं बाहर खड़े रह जाना अच्छा नहीं लगा। खैर इसके बाद हमने प्रभाष जी का बारी-बारी से इंटरव्यू किया जिसमें उन्होंने उम्मीद से कई कदम आगे बढ़कर शानदार जवाब दिए थे। इंटरव्यू के बाद जब प्रभाष जी ने हमारे घर-परिवार के बारे में पूछा तो हमें बहुत हैरानी हुई कि इतना बड़ा संपादक हम जैसे स्टूडेंट्स के साथ भी कितनी जल्दी कितना घुल-मिल गया है। प्रभाष जी ने हमें अपनी छोटी-सी पोती से मिलवाया और उस दिन उन्होंने हमारे साथ खूब हंसी-मज़ाक भी किया। हम तीनों मित्र उस समय एक ही बात सोच रहे थे कि इतना गंभीर दिखने वाला आदमी भीतर से कितना सरल और सहज है।
मुलाक़ात में प्रभाष जी ने यह भी बताया कि उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत कैसे की थी। प्रभाष जी ने बताया था कि 1960 के आसपास (साल मुझे ठीक से याद नहीं है) एक टेस्ट मैच चल रहा था। उन दिनों किसी के घर में रेडियो होना भी बहुत बड़ी बात थी। प्रभाष जी के घर में रेडियो नहीं था सो उन्होंने अपने इलाके के फायर स्टेशन के अधिकारियों के दफ्तर के बाहर पांचों दिन सुबह से शाम तक मैच की कॉमेंट्री सुनकर उस पर एक फीचर लिखा और उसे इंदौर के अखबार 'नई दुनिया' में छापने के लिया भेज दिया। उस समय किसे पता होगा कि यह आदमी आगे चलकर न सिर्फ इतना बड़ा पत्रकार बनेगा, बल्कि इतना महान इंसान भी बन जाएगा कि हम जैसे युवा पत्रकारों के लिए उनकी लेखनी और उनका जीवन दोनों ही प्रेरणा बन जाएंगे।
उस मुलाक़ात को पांच साल से ज्यादा हो चुके हैं। उसके बाद मैं पत्रकारिता में बहुत सारे लोगों से मिला। कई बहुत अच्छे लोग भी मिले, लेकिन प्रभाष जी जैसा कोई नहीं मिला जो असाधारण संपादक तो थे ही और असाधारण इंसान भी थे।"- पूजा प्रसाद
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विस्फोट डॉट कॉम लिखता है
एक विकट क्रिकेटप्रेमी को क्रिकेट जगत की श्रद्धांजलि
सचिन की आतिशी पारी के बावजूद भारत की हार के साथ हिंदी पत्रकारिता के शिखर पुरुष और क्रिकेट के जबर्दस्‍त रसिक प्रभाष जोशी इतने मायूस हुए कि दुनिया को ही अलविदा कह दिया। प्रभाष जी- जो क्रिकेट और टेनिस के दीवाने थे- अपने शब्दों के जरिए पाठकों और क्रिकेटप्रेमियों की चेतना को झकझोरते रहे, सचिन के 17 हजार रनों पर लिखने की तमन्‍ना को दिल में लिए ही जहां से कूच कर गए। अफसोस, उनका सफर वहां खत्म हुआ, जहां असंभव को संभव बनाने देने वाले सचिन तेंदुलकर अपने आसाधारण खेल से दुनिया की नंबर एक क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया के मुंह से जीत को छीन कर भारत के हक में लाते-लाते रह गए। जहां सचिन सबसे ज्यादा रन बनाकर भी टीम को जीत नहीं दिला पाए, उसी तरह प्रभाष जोशी भी सचिन तेंदुलकर के रिकॉर्ड पर लिखने से पहले चले गए ...दरअसल, प्रभाष जी पेशेवर पत्रकार की तरह क्रिकेट पर कलम नहीं चलाते थे, बल्कि एक विकट क्रिकेटप्रेमी की तरह इस खेल और इसके खिलाडि़यों पर अपनी भावनाएं व्‍यक्‍त करते थे। क्रिकेट के प्रति उनके प्रेम को लेकर खेल पत्रकार अमित रायकवार ने देश के कुछ बड़े क्रिकेटरों और खेल संपादको से खास बातचीत की। प्रस्‍तुत है संपादित अंश:सुरेश कौशिक, खेल संपादक, जनसत्‍ताप्रभाष जी जैसा संपादक नहीं मिल सकता, जो खेल को बढ़ावा दे। शुरूआत से ही उन्होनें खेल को जनसत्‍ता का मजबूत पहलू बनाया। उनका एकमात्र लक्ष्य था कि हम खेलों के मामले में इंग्लिश अख़बारों से मुकाबला करें, किसी भी मायने में उनसे पीछे नहीं रहें। यही वजह थी जनसत्‍ता शुरूआती वर्षों में हमने रात 3:30 बजे 1986 में मेक्सिको में हुआ फुटबॉल वर्ल्ड कप टेलीविजन पर देखकर कवर किया। पहले पेज पर उस विश्‍वकप के हीरो और फुटबॉल के महानतम खिलाडि़यों में से एक माराडोना की तस्‍वीर थे। सुबह जब लोगों के हाथ में अखबार आया, तो सब हैरान थे कि सुबह साढे तीन बजे खत्म होने वाले मैच कैसे सबके सामने आ गया। वो चाहते थे कि खेलों में हम सबको पछाड़ें, इसलिए देर रात तक काम करके हमने ताजा से ताज़ा खबरे दीं। उनका क्रिकेट प्रेम जगजाहिर है। क्रिकेट के तो वे किताबी कीड़े थे। सन् पचास से लेकर सचिन तक, अब तक जितने खिलाड़ी हुए, वे कैसा खेलते थे, वो उनको मुंहजबानी रटा हुआ था। खास तौर पर वो सुनिल गावस्कर और सचिन तेंदुलकर के बड़े प्रशंसक थे। सचिन की तो वे आलोचना भी नहीं सुन सकते थे। उनके राज में चाहे शतरंज हो या स्नूकर या फिर हो कुश्ती, फुटबॉल, सभी को अच्छी तरह कवर किया गया। और, खेल पर वे एक बड़ा पन्ना निकालते थे... वो पन्ने आज भी लोगो ने बड़े संभालकर रखे हुए हैं यादगार के तौर पर।प्रदीप मैग्जीन, खेल सलाहाकार, हिंदुस्‍तान टाइम्‍सप्रभाष जी क्रिकेट के असली दीवाने थे। मुझे याद है जब 1977-79 में वे चंढीगढ़ में इंडियन एक्प्रेस के संपादक थे, तब इंडियन एक्‍सप्रेस के एक टेक्नीशियन के पास एक टेलीविजन हुआ करता था और वे कुछ जुगाड़ करके भारत-पाकिस्तान का मैच देखते थे। मैं भी उनके साथ मैच देखता था। वो पूरे नौ से पांच बजे तक एक छोटे से रूम में क्रिकेट देखते रहते थे। उसी दौरान उनसे मुलाकात हुई और क्रिकेट पर काफी डिस्‍कशन होने लगे। फिर उन्होनें मुझे इंडियन एक्प्रेस अख़बार में नौकरी का ऑफर दिया। अंग्रेजी और हिंन्दी दोनों भाषाओं पर उनकी जबर्दस्त पकड़ थी।प्रभाष जी क्रिकेट के मौजूदा हालात को देखते हुए काफी दुखी रहते थे। आईपीएल और इतना पैसा खेल को बरबाद कर रहा है। वो बडे़ प्‍योरिस्ट और ट्रेडिशनल थे। उन्हें इस बात का हमेशा दुख रहता था कि आज का क्रिकेट वो पुराना वाला क्रिकेट नहीं रहा। वो आज भी क्रिकेट पर इतना ही अच्छा बोलते थे, जितना पच्चीस साल पहले। क्रिकेट के नॉलिज में उनका कोई मुकाबला नहीं था और वो क्रिकेट की टेक्निकल चीज़ों के बारे बहुंत जानते थे। युवावस्‍था में वे खुद भी क्रिकेट के बहुत अच्‍छे खिलाड़ी रहे थे और लेफ्ट आर्म स्पिन गेंदबाजी करते थे। उन्हें अपने छोटे बेटे से काफी उम्मीदे थी कि वो आगे चलकर हिंदुस्तान के लिए खेलेगा। उनके छोटे बेटे हरियाणा से रणजी ट्रॉफी खेले थे।प्रभाष जी में सबसे बड़ी खूबी ये थी कि वो बहुत ईमानदार थे। जिन खेल पत्रकारों को क्रिकेट की नॉलिज होती थी, उन्हें वे बड़ा प्रोत्‍साहित करते थे। मुझे भी उन्होने काफी प्रोत्‍साहित किया। उनकी वजह से मेरे कॅरियर को सही दिशा मिली। अक्सर वे बड़े मैच मुझे कवर करने के लिए दिया करते थे, जिसकी वजह से मेरा कॅरियर अच्छा बन पाया। पॉलिटिक्स की समझ की वजह से उनकी क्रिकेट की पॉलिटिक्स की समझ काफी अच्छी थी। कपिल देव ने जब क्रिकेट खेलना शुरू किया और जब कपिल किसी विदेशी दौरे पर जाते थे, तो प्रभाष जी अपने पास कपिल को बुलाते थे और समझाते थे कि 'डाउन टू अर्थ' रहो, ग्लैमर की दुनिया आदमी को ख़राब भी कर सकती है। अगर क्रिकेट के प्रति आपकी कमिटमेंट रहेगी तो आप काफी आगे जाओगे। उन्होने काफी युवा खेल पत्रकारों को बढ़ावा दिया। जब 1982 में दिल्ली में एशियन गेम्स हुए, तब इंडियन एक्‍सप्रेस का सेंट्रल डेस्क बना और प्रभाष जी उसके हेड बने। उनके मार्गदर्शन में क्रिकेट अलावा बाकी खेलों को भी बढावा दिया गया। कई सीनियर क्रिकेटर उनकी काफी इज्जत करते थे। उनसे हमेशा सर, सर कहकर बात करते थे। उन्होंने क्रिकेट से जुड़े कई बड़े मुद्दों को उछाला और क्रिकेट को विस्‍तार से कवर किया, चाहे वो देश में हो या विदेश में।कपिल देव, भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तानकाफी नेक इंसान थे प्रभाष जी। जब हम छोटे से थे, काफी प्रोत्‍साहित किया करते थे हमें। उन्होंने हमारे साथ प्रेस जैसा व्यवाहर नहीं किया। जब भी मुझे उनकी जरूरत होती थी, तो वो हमेशा मेरे साथ खड़े होते थे। उन्होने जिंदगी हमसे कहीं ज्यादा देखी थी... अपने अनुभव से वो हमेशा मुझे समझाते रहते थे। क्रिकेट के वे बहुत बड़े लेखक थे। बाद में वो दिल्ली आ गए, फिर उनसे थोड़ा संपर्क छूट गया, लेकिन जब भी मिलते थे, पुराने दिनों को याद करके उनमें खो जाया करते थे।बिशन सिंह बेदी, भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तानवे बहुत ही क्वालीफाइ राइटर थे। जर्नलिज्‍म की दुनिया में बहुत आदरणीय शख्सियत थे। अपने निजी फायदे के लिए नहीं लिखते थे और उसूलों वाले व्यक्ति थे। मेरे क्रिकेट कॅरियर के दौरान उन्होंने मुझे काफी क्रिटिसाइज भी की, लेकिन मैंने हमेशा उनकी बातो को पॉजिटिव लिया।चेतन चौहान, पूर्व सलामी बल्लेबाज़, भारतीय क्रिकेट टीमकाफी स्पष्टवादी जर्नालिस्ट थे। फ्रैंक थे, ब्‍लंट थे और बहुत ही ईमानदारी से पत्रकारिता करते थे। वो एक ऑलराउंडर खिलाड़ी थे, जितनी जानकारी उनकी पॉलिटिक्स में थी, उतनी ही क्रिकेट में। एक बड़ा ऊंचा स्थान था उनका पत्रकारिता में। उनके ना होने से पत्रकारिता जगत की बड़ी क्षति हुई है। अक्सर जब उनसे क्रिकेट के बारे में बाते होती थीं, तो सुनकर आश्‍चर्य होता था कि उन्हें क्रिकेट की कितनी नॉलिज है।-अमित रायकवार, खेल पत्रकार

Saturday, October 10, 2009

‘अस्सलाम् वाएलेकुम’ का कमाल है ओबामा का नोबल पुरस्कार

भोपाल। अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा को नोबल पुरस्कार क्यों मिल रहा है और क्यों नहीं मिलना चाहिए को लेकर जबरदस्त बहस छिडी हुई है। तमाम ब्लॉग तो इस ज़ंग में घोषणा के समय ही कूद गए थे, लेकिन न्यूज़ वेबसाइट की तरफ से खबर के अतिरिक्त बात कम कही जा रही थी। ऐसे में दैनिक भास्कर के नेशनल एडिटर कल्पेश याग्निक ने ओबामा को नोबल क्यों दिया जा रहा है की हकीकत बताई। eye4media अपने पाठको के लिए हुबहू दैनिक भास्कर के आर्टिकल को ले रहा है
शांति के साथ क्रूरता (10th Oct 09)
कल्पेश याग्निक
नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर
विश्व शांति के लिए 1994 में जब प्रमुख लड़ाकू फिलीस्तीनी नेता यासेर अराफात को नोबेल मिला था तो मखौल उड़ा था कि ‘क्या इस बार पुरस्कार के लिए हत्यारा होना शर्त थी?’ अब जबकि बराक ओबामा को यह सम्मान दिया गया है तो पूछा जा रहा है : क्या इस बार सिर्फ ‘बातें’ काफी थीं? कि एक पखवाड़े में आप विश्व शांति पर कितनी बात कर सकते हैं- यह परखा जा रहा था?जानना जरूरी होगा कि ओबामा ने 20 जनवरी 2009 को अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में काम शुरू किया। नोबेल शांति पुरस्कार के नाम लेने की अंतिम तारीख 1 फरवरी 2009 थी। यानी 11 दिन के उनके कार्यकाल पर उन्हें विश्व में अमन स्थापित करने का सम्मान दे दिया गया! यही नहीं, निर्णायकों ने अपने वोट जून में दे दिए थे- यानी तब भी चार माह हुए थे ओबामा के उन प्रयासों को, जो किसी और को तो खैर दिखे तक नहीं, किन्तु नोबेल कमेटी को ‘असाधारण, अद्वितीय’ लगे। सम्मान की घोषणा वाले दिन तक भी वे नौ माह पुराने ही ‘शांति के क्रांतिकारी’ हैं।संभवत: काहिरा में उनके भाषण का यह कमाल था। इसमें उन्होंने ‘अस्सलाम् वाएलेकुम’ कहकर अरब जगत को चौंका दिया था। हालांकि इजराइल-फिलस्तीन में अमन-चैन बढ़ाने वाले उनके जिन कथित प्रयासों की प्रशंसा नोबेल कमेटी ने की है- वे वास्तव में कहीं नजर ही नहीं आ रहे। यरुशलम में आज भी वैसी ही हिंसा भड़की हुई है। जिस रूस के बारे में उनकी बातचीत को ‘महान’ बताया जा रहा है- उसने भी कोई कागज नहीं दिखाया है और न कोई हस्ताक्षर कहीं किए हैं। यूं भी सोवियत संघ से बिखरकर रूस रह जाने की टीस क्रेमलिन को खोखला कर चुकी है। कुछ कर भी दिया तो इससे विश्व को क्या मिलेगा।ओबामा को सर्वोच्च सम्मान देना नोबेल कमेटी की विवशता हो सकती है और किसी को इससे फर्क भी नहीं पड़ता। प्रश्न केवल यह है कि कभी अंतरराष्ट्रीय पुलिस तो कभी विश्व के न्यायाधीश का भेष बनाने/बदलने वाले अमेरिका के उस राष्ट्रपति को आप कैसे यह तमगा जड़ सकते हैं, जिसने न तो इराक से अपनी सेनाएं वापस ली हैं,न ही अफगानिस्तान से। हमारे देश के परमाणु परीक्षण पर क्रंदन कर चुके अमेरिका के स्वयं के हथियारों में ओबामा ने क्या कमी की है? आज तो विश्व यह जानना चाहता है। यदि प्रमुख सैन्य जर्नल्स और किताबों पर निगाहें डालें तो पता चलता है कि ओबामा के नेतृत्व में वॉशिंगटन के पास आज 5500 से अधिक वॉरहेड्स हैं। यानी शक्तिशाली संहारक- परमाणु हथियारों और बमों- का सक्रिय जखीरा। और तिस पर वे बने हुए हैं हथियारों को समाप्त करने के अभियान के सिरमौर। बल्कि अब तो इस सम्मान में उन्हें ‘हथियारों की समाप्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ आव्हान करने वाला’ कहा गया है। आव्हान यानी वही-बातें। सब कुछ कर लेने, सब कुछ पा लेने के बाद होता ही क्या है-बातें।विश्व में परमाणु हथियार बनाने वाला पहला देश अमेरिका था। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी को तबाह कर वह एकमात्र ऐसा देश भी बन गया-जिसने इन हथियारों का वास्तविक उपयोग निर्दोषों का रक्तपात कर किया। आज विश्व के सात परमाणु देशों-अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, हिंदुस्तान और पाकिस्तान में कुल मिलाकर जितने एटमी बम होंगे(कोई 22-23 हजार), उनसे तीन गुना अधिक अमेरिका के पास रहे हैं। आज भी उसने हथियार जरूर कम कर दिए हैं, लेकिन क्षमता सर्वाधिक है।हमसे परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर दबावपूर्वक चाहते हैं-जबकि हमारी अघोषित, अनुमानित क्षमता बमुश्किल 30-35 वॉरहेड्स होगी। हमसे तो पाकिस्तान ने गुपचुप ज्यादा हथियार बना रखे हैं-जिसे लगातार अरबों डॉलर की मदद इन्हीं ओबामा के हस्ताक्षरों से दी जा रही है। उस पैसे को हमारे विरुद्ध चोरी के हथियारों पर खर्च किया जा रहा है- लेकिन सब कुछ सुन-समझ चुकने पर भी ओबामा क्या करते हैं-बातें। बेहतर तो होता कि उम्र, अनुभव और अभ्यास तीनों मानदंडों पर ‘अभी कम होने’ की विनम्रता दिखाते हुए ओबामा स्वयं इसे लेने से इनकार कर देते। किन्तु उनकी विनम्रता का तकाजा कुछ और रहा होगा। चाहे हमें वह क्रूर लगे।अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबल शांति पुरस्कार मिलने पर शुरू हुए विवाद पर अपने विचारों से हमें अवगत कराएं।

Monday, September 21, 2009

मीडिया से नाराज हैं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने पोखरण-2 के परीक्षण पर उठे बवाल को मीडिया जगत की देन करार देते हुए रक्षा अनुसंधान व विकास संगठन (डीआरडीओ) के पूर्व वैज्ञानिक के संथानम के दावों को चौंकाने वाला बताया है। नारायणन ने कहा, हमारे पास थर्मोन्युक्लियर क्षमताएं हैं। अगर आप उनमें से किसी एक से किसी शहर पर हमला करेंगे, तो उनसे करीब 50 हजार से एक लाख मौतें हो सकती हैं। विभिन्न लोगों की ओर से मीडिया में स्वार्थपूर्ण प्रचार चलाया जा रहा है, जो सरकार के लिए चिंता का विषय है। उन्होंने कहा कि भारत के पास थर्मोन्यूक्लियर क्षमता है और आला वैज्ञानिक इसकी पुष्टि कर चुके हैं। देश के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों से मिलकर बना परमाणु ऊर्जा आयोग (एईसी) पिछले हफ्ते 1998 के परमाणु परीक्षण की क्षमता पर प्रामाणिक बयान दे चुका है। अब इस मुद्दे पर सरकार की ओर से किसी अन्य स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। एक निजी चैनल पर साक्षात्कार के दौरान नारायणन ने कहा कि एईसी 1998 में भी संतुष्ट था और 2009 में भी संतुष्ट है। ऐसे में इस मुद्दे पर चर्चा करना बेमानी है। हाइड्रोजन बम की प्रभाव क्षमता पर के संथानम के बयान से उपजे विवाद के कारण एईसी से 1998 के परमाणु परीक्षणों के आंकड़ों का पुन: अध्ययन करने को कहा गया था। नारायणन ने कहा, मुझे लगता है हम जो चाहते थे, हमने किया। सीएनआर राव, पी रामा राव व एमआर श्रीनिवासन राव जैसे एईसी के आला वैज्ञानिकों व परमाणु कार्यक्रम से जुड़े राजा रमन्ना ने 1998 के परमाणु परीक्षणों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नारायणन के मुताबिक थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस में 45 किलोटन ईंधन का इस्तेमाल हुआ था। यह जानकारी किसी को भी नहीं थी। पता नहीं होने के कारण संथानम कुछ भी कह सकते हैं। एईसी के पूर्व प्रमुख पीके आयंगर ने भी परीक्षणों में 45 किलोटन ईंधन के इस्तेमाल की बात स्वीकार की थी और परमाणु विखंडन व संलयन की क्रियाएं एक साथ होने की आशंका जताई थी। जिस परीक्षण में इतने नामी-गिरामी वैज्ञानिक जुड़े थे उसके बारे में संथानम अकेले कोई दावा कैसे कर सकते हैं। मुझे लगता है संवेदनशील मसलों पर सार्वजनिक चर्चा की कोई जरूरत नहीं है। परमाणु अप्रसार संधि एनपीटी पर तमाम देशों के हस्ताक्षर का आह्वान करने वाले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव पर जोर देने के अमेरिकी कदम के बारे में उन्होंने कहा कि अमेरिकी नेताओं के समक्ष इस मुद्दे को पहले ही उठाया जा चुका है और उन्होंने भारत को आश्वस्त किया है कि यह असैनिक परमाणु संधि को प्रभावित नहीं करेगी। गैर परमाणु देशों को संवर्धन और पुन: संवर्धन प्रौद्योगिकियों बेचने पर प्रतिबंध पर समूह आठ (जी8) देशों को सहमत करने की अमेरिका की कोशिशों के मद्देनजर भारत ने उन देशों से भी चर्चा की है जिनके साथ उसकी परमाणु संधियां हैं। परमाणु हथियारों के पहले उपयोग नहीं करने के सिद्धांत पर पुनर्विचार का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि हमारे लिए यह केवल एक परमाणु रोधी क्षमता है। हम इसके प्रति कृतसंकल्प हैं। मुशर्रफ का बयान पुराना नारायणन ने कहा है कि आतंकवाद से लड़ने के लिए अमेरिका से मिली मदद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ करने की पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकारोक्ति एक पुरानी कहानी है। पिछले तीन-चार साल के दौरान अमेरिका से आधुनिक हथियारों की पाकिस्तान की खरीदारी हारपून मिसाइल में किसी संशोधन से ज्यादा चिंता का विषय है। उन्होंने परमाणु हथियारों के जखीरे में पाकिस्तान के इजाफा करने की रिपोर्टों पर कहा यह तथ्य निश्चित रूप से चिंता का मुद्दा है कि एक देश अपने परमाणु हथियारों का जखीरा बढ़ा रहा है जो हमारे प्रति दोस्ती का रूख नहीं रखता।
साभार दैनिक जागरण दिल्ली

Thursday, September 17, 2009

साधना न्यूज़ मध्यप्रदेश में महिला पत्रकार की खिलाफ अश्लील पर्चबाजी


फाल्गुनी त्रिपाठी। भोपाल
मध्य प्रदेश में साधना न्यूज़ चैनल में हाल ही में ज्वाइन करने वाली वरिष्ठ पत्रकार मुक्ता पाठक को हटाने के लिए कुछ पत्रकारों ने उन्हें बदनाम करने के लिए बेनामी पर्चे निकालकर उनके चरित्रहनन की कोशिश की हैं खास बात ये है की जो पर्चे जारी हुए हैं वे सेन्ट्रल प्रेस क्लब के लेटर हेड पर हुए हैं। इस बात से न केवल मुक्ता पाठक आहत हैं बल्कि प्रेस क्लब के प्रेसिडेंट विजय दास भी नाराज हैं। उन्होंने पूरे मामले की जांच कराने की बात कही। माना जा रहा हैं मुक्ता पाठक के साधना न्यूज़ ज्वाइन करने से वहां काम कर रहे एक गुट को करार झटका लगा हैं क्योंकि उन लोगों को लगने लगा है की शायद मुक्त पाठक के आने से उनके काम प्रभावित होंगे साधना चैनल में भी उनका कद कम होगा। माना ये जा रहा है है की मुक्ता पाठक की कार्यशैली से लोग ज्यादा भयभीत हैं। क्योंकि मुक्ता पाठक जिस भी संस्थान में काम करती हैं उनका हर कदम संस्था के हित में होता हैं और इस कारण अमानत में खयानत करने वाले उनसे खासे नाराज़ रहते हैं साधना न्यूज़ के सूत्र बताते हैं कि मुक्ता पाठक के आने के बाद से न्यूज़ डिपार्टमेंट के एक पत्रकार ने इसका विरोध सिर्फ इसलिए किया क्योंकि मुक्ता कि साख उनसे ज्यादा अच्छी हैं और सरकार पर पकड़ भी पर्याप्त हैं ऐसे में मुक्ता पाठक का पहला शो "आप कि बात" हिट हो जाने से भी साधना न्यूज़ के दो पत्रकारों को खासी दिक्कतें शुरू हो गयी हैं साधना टीवी के सूत्रों का कहना हैं कि इन लोगों को इस बात से भी दिक्कत शुरू हो गई हैं कि मुक्ता पाठक को मैनेजमेंट ज्यादा तवज्जो क्यूँ दे रहा हैं इसके पहले भी ये बात सामने आई है की वल्लभ-भवन और जनसंपर्क कार्यालय में जाकर एक गुट मुक्ता पाठक को भला बुरा एक गुट ने कहा है। भोपाल में पत्रकारों का एक गिरोह हमेशा ही अपनी दुश्मनी निकलने के लिए पर्चेबाजी का सहारा लेता हैं ये वही लोग हैं जो इससे पहले सीनियर जर्नलिस्ट राहुल सिंह, एन के सिंह, राजेश बादल, अनुराग उपाध्याय, राजेन्द्र शर्मा, ह्रदेश दीक्षित, अभिलाष खांडेकर आदि के खिलाफ भी पर्चे निकाल चुके हैं इन पर्चों का शिकार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से लेकर बड़े बड़े अधिकारी तक बने हैं लेकिन इस बार जो पर्चा मुक्ता पाठक के खिलाफ आया हैं वह एक दम भद्दा और घोर आपत्तिजनक हैं इस पर्चे में वह बातें भी लिखी हैं जो सिर्फ साधना चैनल में काम करने वाले व्यक्ति ही जानते हैं इसलिए यह पक्का हो गया हैं कि पर्चेबाज साधना के भीतर का ही कोई व्यक्ति हैं इस मामले पर जब मुक्ता पाठक से बात कि गई तो उन्होंने फ़िलहाल कुछ भी कहने से इंकार कर दिया हैं वही इस पर्चे में सेन्ट्रल प्रेस क्लब और उसके अध्यक्ष का नाम आने के बाद भी प्रेस क्लब कि चुप्पी समझ से परे हैं सेन्ट्रल प्रेस क्लब के सीनियर जर्नलिस्ट विजय दास ने इस पर्चेबाजी को असहनीय बताया हैं और कहा हैं वह इस मामले में गंभीर हैं और शीघ्र ही इस मामले कि जाँच करवायेंगे
साभार http://www.dakhal.net/

Wednesday, September 16, 2009

राज एक्सप्रेस, भोपाल : कई लोग गए और आए

राज एक्सप्रेस, भोपाल में पिछले चार सालों से अपनी सेवाएं दे रहे और वर्तमान में स्टेट न्यूज कोऑडीनेटर धर्मेंद्र वर्मा ने राज एक्सप्रेस को छोड़ने का मन बना लिया है। इसके तहत उन्होंने प्रबंधन को 45 दिन का नोटिस दे दिया है। पता चला है कि धर्मेंद्र अपनी खुद की एक पत्रिका लांच करने जा रहे हैं। एक अन्य जानकारी के मुताबिक विश्वेश्वर शर्मा ने राज एक्सप्रेस में स्टेट न्यूज कोऑर्डिनेटर के पद पर ज्वाइन कर लिया। श्री शर्मा इससे पहले भोपाल से प्रकाशित सांध्य दैनिक फाइन टाइम्स में संपादक के तौर पर पदस्थ थे। राज एक्सप्रेस में इंदौर रीजनल डेस्क के संपादकीय सहयोगी अमित माथुर ने राज को अलविदा कह दिया है। उन्होंने अपनी नई पारी पत्रिका इंदौर से शुरू कर दी है।
इसी डेस्क पर कार्यरत शैलेष साहू ने भी राज एक्सप्रेस से नमस्ते बोल दिया है। उनका अगला पड़ाव मालूम नहीं हो पाया है। राज एक्सप्रेस में ग्वालियर रीजनल डेस्क पर कार्यरत गणेश मिश्रा, इंदौर रीजनल डेस्क पर कार्यरत संदीप राजावत और आर16 में कार्यरत धीरज राय ने राज एक्सप्रेस को बाय बोल दिया है। इन तीनों ने दैनिक भास्कर भोपाल में रिपोर्टर के तौर पर ज्वाइन कर लिया है। राज एक्सप्रेस में जबलपुर रीजनल में एडीशन इंचार्ज वासुदेव शर्मा का तबादला प्रबंधन ने नरसिंहपुर ब्यूरो चीफ के तौर पर कर दिया है।

हमारी भूख-हल्का व्रत और भारी सेक्स

चौंकिए नही, ये विचित्र किंतु सत्य है। हो सकता है की हम में से बहुत सारे लोग इस सच को जानते हो की अब सेक्स धर्म पर भारी पड़ने लगा है, लेकिन में दावे के साथ कह सकता हु की जिस सेक्स और व्रत की बात में कर रहा हूँ वह आप नही जानते हैं। क्योंकि व्रत को हल्का कर सेक्स को भारी करने वाले तो आप और में ही हैं। खेर ये बाद में विचार करना की केसे? लेकिन इसके पहले ये जान ले की हमने ये गलती की कब। दरअसल वेब दुनिया की एक बड़ी साईट है लाइव हिंदुस्तान डॉट कॉम। इस साईट पर हर पल समाचार अपडेट होते हैं और इसकी पाठक संख्या भी काफी ज्यादा है। इस साईट पर एक कालम है जिसमे सबसे अधिक पड़ी जाने वाली खबरों का जिक्र होता है। हालाँकि ये कोई नई बात नही है, लेकिन यहाँ जिन ख़बरों का जिक्र है और उनकी रैंकिंग दर्ज है। वह चौंकने पर तो नही लेकिन सोचने पर जरूर मजबूर करता है। क्योंकि अभी तो ऐसे हालत नही हुए हैं की व्रत सेक्स से भी हल्का हो जाए। लेकिन वेबसाइट पर दर्ज रैंकिंग तो उसी तरफ इशारा कर है। लेकिन पूरी रैंकिग में एक चौंकाने वाली जो सबसे बड़ी बात है की व्रत केसे करे को पांचवां स्थान मिला है। मुझे व्रत वाली खबर पर हैरत इस लिए हो रही है की व्रत केसे करें पड़ने वाले लोग कौन हैं। और व्रत केसे करें पड़ने वाले लोग हैं तो फ़िर सेक्स की वे ख़बरें जिनका हकीकत से वास्ता कम है को क्यों पड़ा जा रहा है। सोचना जरूरी तो नही लेकिन सोचेंगे तो शायद सेहत पर असर नही पड़ेगा।
अब एक नज़र उन पाँच ख़बरों पर जिनके कारण मेरी बकवास आपको पड़नी पड़ रही है। क्योंकि आपको कुछ और भी तो पड़ना होगा। 1
एक टीचर ने बलात्कार किया, दूसरी ने कपड़े उतारे

Monday, September 14, 2009

एमपी पत्रिका का एक साल, कई आए-गए

पत्रिका, भोपाल और पत्रिका, इंदौर ने मध्य प्रदेश में अपने एक साल पूरे होने पर समारोह का आयोजन किया। भोपाल में आयोजित समारोह में प्रदेश के राज्यपाल समेत कई गणमान्य लोग शामिल हुए तो इंदौर के समारोह में मुख्यमंत्री ने हिस्सा लिया। हालांकि बाबी छाबड़ा प्रकरण के कारण इंदौर के समारोह में पत्रिका के लोग काफी डिमोरलाइज दिखे लेकिन अतिथियों की बड़े पैमाने पर उपस्थिति ने और समारोह के सफल हो जाने से इस जख्म पर मरहम का काम किया है। पत्रिका का मध्य प्रदेश में एक साल काफी उथल-पुथल भरा रहा। सरकुलेशन और ब्रांड प्रजेंस के मामले में पत्रिका ने सफलतापूर्वक अपना प्रमुख स्थान बनाया लेकिन आंतरिक उठापटक से यह अखबार काफी प्रभावित रहा। पत्रिका, भोपाल एक साल का हो गया लेकिन यहां इसी एक साल में कई स्थानीय संपादक आए-गए। अभी स्थानीय संपादक गिरिराज शर्मा हैं। वे पत्रिका, भोपाल के तीसरे स्थानीय संपादक हैं। शुरुआत में अजीत सिंह को स्थानीय संपादक के रूप में रखा गया था लेकिन अखबार के प्रकाशित होने से कुछ दिन पहले दिनेश रामावत को स्थानीय संपादक बनाकर अजीत सिंह को संपादकीय पेज देखने का काम दे दिया गया। प्रिंटलाइन में दिनेश रामावत का नाम जाने लगा लेकिन कुछ ही महीने बाद दिनेश रामावत को जयपुर बुला लिया गया और गिरिराज शर्मा को नया स्थानीय संपादक बना दिया गया।
इसी तरह पत्रिका, इंदौर में भी एक साल में दो स्थानीय संपादक आ-जा चुके हैं। पत्रिका की इंदौर में लांचिंग पंकज मुकाती ने कराई। बाद में उन्हें हटाकर अरुण चौहान का स्थानीय संपादक बना दिया गया। चर्चा है कि बाबी छाबड़ा प्रकरण के बाद पत्रिका प्रबंधन अरुण व कुछ अन्य को कार्रवाई के दायरे में ले सकता है। कुछ दिनों पहले स्थानीय संपादक रैंक के सिद्धार्थ भट्ट को भी पत्रिका, इंदौर भेजा गया है। इससे अब इंदौर में स्थानीय संपादक रैंक के दो-दो लोग हो चुके हैं। एक अन्य जानकारी के अनुसार पत्रिका, इंदौर के मार्केटिंग विभाग के वरिष्ठ अधिकारी जेपी शर्मा ने इस्तीफा दे दिया है।

हर तारीख पर नज़र

हमेशा रहो समय के साथ

तारीखों में रहता है इतिहास