Tuesday, December 30, 2008

क्या सुगुना का गौना हो जायेगा

वैसे तो पूरे देश की चिंता भारत-पाक युद्ध को लेकर है लेकिन इन दिनों एक और मुद्दा ऐसा है जो राष्ट्रीय चिंता का विषय बना हुआ है। वह है बालिका वधु यानी आनंदी की ननद सुगुना का गौना। ऐसा पहली बार तो नही हुआ जब कोई सार्थक विषय देश भर में चिंता का विषय बना है लेकिन सास बहु से मुक्ति पाकर दोबारा सार्थक विषय पर राष्ट्रीय चिंता लंबे समय बाद हो रही है। अब इस बात की खुशी मनाये या गम की देश की जनता भारत-पाक मुद्दे पर ध्यान न देकर भेरव(अनूप सोनी और बालिका वधु में सुगुना के पिता)के साथ है की कही उसकी बेटी का गौना ना हो जाये । भेरव अकेला पड़ चुका है और सुगुना अपनी ददिशा के कहने पर पूरे गाँव में न्योता दे रही है।
इस मुद्दे को लेकर कई न्यूज़ चेनल भी अपनी चिंता ज़ाहिर कर चुके हैं। फ़िर भी ये सीरियल सास-बहु की खतरनाक चालों से इतर एक सुकून देता है। हाँ तो में बात कर रहा था की क्या सुगुना का गौना हो जायेगा तो फिलहाल तो यही लग रहा है की ये हो जायेगा और हम एक सुखद एहसास से वंचित रह जायेंगे। लेकिन हकीकत यह है की राजस्थान में आज भी भेरव जेसे लोग अकेले ही रहते हैं और चाह कर भी समाज के वे लोग जो जानते हैं की बाल विवाह एक बुराई है फ़िर भी सामने नही आ पाते हैं। लंबे समय बाद बुनियाद सीरियल के बाद एक सार्थक सीरियल आया जिसे राष्ट्रीय चिंता का विषय बनाना चाहिए। में भले ही कुछ कहूँ लेकिन इस सीरियल को देखने वाले लोग जानते हैं की उनका मन भेरव के साथ है लेकिन वे कुछ नही कर सकते हैं सिवाय इंतज़ार के जो में भी कर रहा हूँ। हाँ एक काम जरूर कर सकते हैं जो में भी कर रहा हूँ की अपने पड़ोस में होने वाले बाल विवाह को रोक कर भेरव का साथ दे सकते हैं या फ़िर जिस लड़की का कम उम्र में विवाह हो गया है उसे व् उसके परिवार को समझाये की कही लड़की कम उम्र में माँ न बन जाए।
एक मदद और चाहूँगा की में अभी नया-नया लेखक बना हूँ, लिखना बिल्कुल नहीं आता इसीलिए आप मेरा मार्ग प्रशस्त करें की मीडिया के इस सिपाही के दिल में जो है उसे बेहतर केसे अपने ब्लॉग पर उतर सकूँ।

Saturday, December 27, 2008

नव विचार हो नव बहार हो

प्रिन्स दैनिक भास्कर ग्रुप के इलेक्ट्रानिक मीडिया बीटीवी मैं प्रोड्यूसर हैं और अहा जिंदगी जेसे बेहतरीन कार्यक्रम तैयार करते हैं। उनके प्रोग्राम खास लोगो की आम जिन्दगी को सामने लाते हैं और खास को आम से जोड़ने में मदद करते हैं। ये कविता उन्होंने मुझे फ़ोन पर सुनाई और मेने उसी समय उनसे इसे मीडिया हाउस पर प्रकाशित करने का अनुरोध किया और उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। प्रिन्स गुप्ता की ये कविता नव वर्ष के आगमन के लिए तो है ही,नए वर्ष में नया जोश भी भरती है। - भीमसिंह मीणा
प्रिन्स गुप्ता

नव संचार हो
" नव विचार हो,
" नव बहार हो,
" नव संचार हो,
नव ज्योत जले
नव सोच चले
जीवन में नवाचार हो
मन कोमल में नव उद्गार हो
जीवन की आपाधापी मैं हर पल नवसंचार हो।
छुपी मन जिज्ञासा का उत्कर्ष आधार हो । ।
जीवन चले सृष्टि फले मन में यह सदविचार हो
चंचल जिजीविषा का न यहाँ कोई स्थान हो । ।
कठिन भले ही हो रही हो जीवन डगर।
थकान का पर नमोनिशान ना हो।
तू चलता चल ऐ मना (maanav) जीवन में कहीं विश्राम ना हो।
कर्त्तव्य पथ हो कठिन पर जीवन में कहीं विराम ना हो
" नव विचार हो,
"नव बहार हो,
" नव संचार हो ,

नव वर्ष मंगलमय हो

Monday, December 22, 2008

क्या मजबूरी है की अनपढ़ मंत्री बनाया जाए?

फ़िर शुद्धः अनपढ़ मंत्री क्या गलती हो गई?
वेसे तो ये आलेख पहले लिखा था लेकिन उस समय मेरा मकसद केवल मंत्री मंडल की जानकारी देना भर था लेकिन मुझे लगा की कुछ एसा है जो छूट गया लेकिन क्या? आखिरकार दिल को चेन नहीं मिला और फ़िर से लिखना शुरू कर दिया। क्योंकि इस मंत्रिमंडल में एक अनपढ़ मंत्री गोलमा देवी भी शामिल है। अब समझ नहीं आ रहा है की हमसे गलती हो गई हैं या फ़िर hअमर सामने पद भरने की मजबूरी थी
मुझे लगता है की राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने मंत्रियों को बनाया तो है लेकिन उनके सामने शिवराज की तरह भारी दबाव नहीं था और वो इसलिए क्योंकि उन्हें राजस्थान के सबसे ताकतवर नेता किरोड़ीमल का समर्थन हासिल था और इसी के फलस्वरूप मुख्यमंत्री गहलोत ने गोलमा देवी जो की पूरी तरह निरक्षर है को राज्यमंत्री बनाया और इसका किसी ने विरोध नहीं किया। लेकिन यहाँ सवाल दूसरा है।
अनपढ़ हुए तो क्या हुआ ?
गोलमा देवी ने मंत्री पद की शपथ ली तो मीडिया ने उनसे सवाल किया की आप अनपढ़ है केसे मंत्री पद का निर्वहन करेंगी तो उन्होंने कहा की जब राबड़ी देवी सीएम बन सकती हैं तो वह मंत्री क्यों नहीं ban sakti और उनका तर्क कोई गलत भी नहीं है। क्योंकि इस देश का ये दुर्भाग्य है यहाँ पड़े लिखे मंत्री बन्ने की भागम भाग में पिछड़ जाते है और ओपचारिकता पूरी नहीं कर पाते हैं।
अनपढ़ आवश्यकता या मजबूरी?
अब सवाल ये है की अनपढ़ हमारी आवश्यकता है या मजबूरी है। यानी समाज में जिसे दुनिया daari की समझ है और जनता का दुःख दर्द समझ आता है वो नेता बेहतर है या जिसे दुनिया समझ में आती है और जो प्रदेश को हर क्षेत्र में आगे बड़ा सके जिसे समझ में आता है की जनता के लिए vidhvans भी लाभकारी हो सकता है वो नेता है बेहतर है। विचार हमें और आपको करना है। अगर हम अच्छे नेता नहीं बना सकते या फ़िर नहीं बन सकते है तो मुझे लगता है इस विषय पर चर्चा नहीं करना चाहिए। न ही देश में हुई किसी बड़ी घटना के लिए एकदम से वर्तमान राजनीति को गली दे देना चाहिए।
अब एक जानकारी राजस्थान की
सीएम के पास रहेंगे ये विभाग-
ये विभागवित्त एवं कर, गृह, एसीबी, जेल, नागरिक सुरक्षा, नगरीय विकास एवं आवासन, स्वायत्त शासन, आयोजना, कार्मिक, सार्वजनिक निर्माण, प्रशासनिक सुधार एवं समन्वय, मंत्रिमण्डल सचिवालय, ऊर्जा व गैर परम्परागत स्रोत ऊर्जा, नागरिक उड्डयन, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति, सूचना एवं प्रौद्योगिकी, चुनाव, सूचना एवं जनसम्पर्क, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता, वक्फ, खान, आपदा राहत, सम्पदा, आबकारी, वन एवं पर्यावरण, आर्थिक एवं सांख्यिकी, तकनीकी शिक्षा (कृषि), खादी एवं ग्रामोद्योग, डेयरी, युवा एवं खेल मामलात, मोटर गैराज, कृषि विपणन, देवस्थान, नीति निर्माण, जनशक्ति आयोजना, राज्य बीमाशिक्षा देखेंगे सीएम सहित छह मंत्रीप्रदेश में शिक्षा का काम मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सहित छह मंत्रियों के जिम्मे रहेगा।
विभाग किसे क्या मिला
(केबिनेट)
१.मास्टर भंवरलाल-श्रम-रोजगार प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा
२.बीना काक-पर्यटन कला,संस्कृति महिला व बाल विकास मुद्रण-लेखन
३.महेन्द्रजीत मालवीया—जनजाति विकास अभाव अभियोग निवारण
४.महिपाल मदेरणा— जल संसाधन आईजीएनपी पीएचईडी,भू-जल व सीएडी
५.परसादी लाल मीणा—सहकारिता, अल्प बचत एवं लॉटरी
६.शांति धारीवाल— उद्योग, विधि, संसदीय कार्य, उच्च शिक्षा (अति.प्रभार)
७.बृजकिशोर शर्मा—परिवहन संस्कृत शिक्षा भाषा एवं भाषायी अल्पसंख्यक
८.एमाद्दुदीन खान उर्फ दुर्रू मियां—स्वास्थ्य परिवार कल्याण स्वास्थ्य शिक्षा
९.हरजीराम बुरडक— कृषि पशुपालन मत्स्य पालन
१०.हेमाराम चौधरी—राजस्व उपनिवेशन सैनिक कल्याण
११.भरत सिंह— ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज
राज्यमंत्री
१२.रामकिशोर सैनी—सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता
१३.गोलमा देवी मीणा —खादी एवं ग्रामोद्योग

Sunday, December 21, 2008

आख़िर झुकना पड़ा शिवराज को

आख़िर शिवराज सिंह को झुकना पड़ाजिन लोगो वह मंत्रिमंडल में नही चाहते थे उन्हें मजबूरन जगह देनी पड़ी। खासतोर से कैलाश विजयवर्गीय से उन्हें ज्यादा दिक्कत होगी। हो सकता है ये मेरी अपनी राय हो सकती है लेकिन इतना तो तय है की मोजुदा मंत्री मंडल बिना दवाब के नही बना। लेकिन इसमे शिवराज कर भी क्या सकते है। क्योंकि वे भले चुनाव जीता लाये हो लेकिन असली परीक्षा तो उन्हें अगले पाँच साल सरकार चलाकर देनी होगी जिसमे उनकी रह में सबसे बड़े रोड़ा बन सकते है कैलाश विजयवर्गीय। एक बात जो सबको चोंका रही है वो है सरताज सिंह को मंत्रिमंडल में न लेना। शायद इसका कारण सरताज सिंह का बड़ा हुआ कद है जो शायद शिवराज सिंह के कद को छोटा कर सकता है हालाँकि ये केवल आशंका है और इससे इतर शिवराज को जनता चाह रही है।
इस प्रकार रहा मंत्रिमंडल-
ुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने शनिवार को मंत्रिमंडल के गठन के करीब सात घंटे बाद देर रात मंत्रियों के विभागों का वितरण कर दिया। इसमें ‘बुलडोजर’ मंत्री के नाम से विख्यात बाबूलाल गौर को फिर से नगरीय प्रशासन विभाग की कमान सौंपी गई है.
-क्या मिला...
1- शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री -- सामान्य प्रशासन, नर्मदा घाटी विकास, विमानन अन्य विभाग जो किसी मंत्री को आवंटित नहीं हैं।
2- बाबूलाल गौर -- नगरीय प्रशासन एवं विकास, भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास
3- राघवजी -- वित्त, योजना, आर्थिक और सांख्यिकी, बीस सूत्रीय क्रियान्वयन और वाणिज्यिक कर
4- जयंत मलैया -- जल संसाधन, आवास और पर्यावरण
5- कैलाश विजयवर्गीय -- वाणिज्य, उद्योग एवं रोजगार,सूचना प्रौद्योगिकी,विज्ञान और टेक्नालॉजी, सार्वजनिक उपक्रम, उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण, ग्रामोद्योग, संसदीय कार्य
6- गोपाल भार्गव -- पंचायत और ग्रामीण विकास
7- अनूप मिश्रा -- लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, ऊर्जा, चिकित्सा शिक्षा
8- जगदीश देवड़ा -- परिवहन, जेल और गृह
9- लक्ष्मीकांत शर्मा --- संस्कृति,जनसंपर्क,धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व व जनशिकायत निवारण
10- नागेंद्र सिंह नागौद ------------ लोक निर्माण
11- अर्चना चिटनीस -------------- तकनीकी शिक्षा एवं प्रशिक्षण, उच्च शिक्षा, स्कूल शिक्षा
12- जगन्नाथ सिंह --------------- आदिम जाति एवं अनुसूचित जाति कल्याण
13- डा. रामकृष्ण कुसमरिया -------- किसान कल्याण तथा कृषि विकास, पशुपालन, मछलीपालन, पिछड़ा वर्ग और अल्प संख्यक कल्याण
14- गौरीशंकर बिसेन -------------- लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी, सहकारिता
15- तुकोजीराव पवार -------------- पर्यटन, खेल और युवक कल्याण
राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार ...
16- करण सिंह वर्मा ----- श्रम, राजस्व, पुनर्वास
17- पारस जैन -------- खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण
18- रंजना बघेल ------- महिला एवं बाल विकास, सामाजिक न्याय
19- राजेंद्र शुक्ला ------- वन, जैव विविधता/जैव प्रौद्योगिकी,खनिज साधन, विधि और विधायी कार्य
राज्यमंत्री ...
20- नारायण सिंह कुशवाह ----- परिवहन, जेल और गृह
21- कन्हैयालाल अग्रवाल ------ सामान्य प्रशासन, नर्मदा घाटी विकास, विमानन
22- हरिशंकर खटीक --------- आदिम जाति और अनुसूचित जाति कल्याण
23- देवीसिंह सैयाम --------- पंचायत और ग्रामीण विकास


Tuesday, December 16, 2008

देश की अस्मिता के नाम पर भी बटोर ली टीआरपी

खबरिया चैनलों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों के शब्दों में कहें तो 26 नवंबर से तीस नवंबर मीडिया कवरेज के चार ऐतिहासिक दिन थे। मीडिया कवरेज के इन ऐतिहासिक दिनों की बदौलत 29 नवंबर को समाप्त हुए सप्ताह में हिंदी खबरिया चैनलों के पास कुल दर्शकों में से 16.1 फीसदी थे। जबकि इसके पहले के चार सप्ताहों के आंकडे़ देखें तो यह पता चलता है कि इस दौरान हिंदी समाचार चैनलों को औसतन हर हफ्ते 6.7 प्रतिशत लोग देखते थे।
मुंबई में आतंकी हमलों के दौरान ६२ घण्टों तक चली मुटभेड़ ने टीआरपी के इतिहास में नया अध्याय जोड़ दिया है. टीवी न्यूज के इतिहास में इतने दर्शक चैनलों को कभी नहीं मिले थे. इन बासठ घण्टों में मीडिया ने जो कुछ किया उस पर नीतिगत बहस जारी है, लेकिन मीडिया का काम हो गया. उन बासठ घण्टों के दौरान उसकी टीआरपी ने सारे रिकार्ड तोड़ दिये. आतंक की इस रिपोर्टिंग ने मीडिया की झोली दर्शकों और पैसों से भर दी है.
मीडिया के इस लाईव प्रसारण से आतंकवादियों से लोहा ले रहे सुरक्षाकर्मियों को अपने ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने में मुश्किलें भी आईं। मीडिया के इस गैरजिम्मेदराना रवैए की हर तरफ आलोचना होने लगी तो कई कई समाचार चैनलों के संपादक अलग-अलग समाचार पत्रों में लेख लिखकर अपनी पीठ खुद थपथपाने लगे और बासठ घंटे के लाइव प्रसारण को ऐतिहासिक तक बता डाला। इन संपादकों ने कहा कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए आतंकी कार्रवाई का सजीव प्रसारण किया ना कि टीआरपी यानि टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट के लोभ में। मुंबई आतंकी हमले के दौरान बासठ घंटे तक चले ऑपरेशन कवर करने को भले ही समाचार चैनलों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग अपनी जिम्मेदारी बता रहे हैं और इस कवरेज पर अपनी पीठ थपथपा रहे हों लेकिन सच यही है कि इस दौरान खबरिया चैनलों की टीआरपी बढ़ गई। जाहिर है कि इस बढ़ी टीआरपी को भुनाने के लिए इन खबरिया चैनलों के विज्ञापन दर में बढ़ोतरी होना तय है और फिर इनकी कमाई में ईजाफा होना भी निश्चित है।
टीआरपी नापने वाली एजेंसी टैम यानि टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट के आंकड़े बता रहे हैं कि छब्बीस नवंबर से तीस नवंबर के बीच समाचार चैनलों के संयुक्त दर्शक संख्या में तकरीबन एक सौ तीस फीसदी का ईजाफा हुआ। यानि खबरिया चैनल देखने वालों की संख्या इस दरम्यान दुगना से भी ज्यादा हो गई। जबकि मनोरंजन चैनलों के दर्शकों की संख्या में जबर्दस्त कमी आई। टैम के मुताबिक कुल दर्शकों में से 22.4 प्रतिशत दर्शक इन चार दिनों के दौरान हिंदी खबरिया चैनल देखते रहे। जब से टीआरपी नापने की व्यवस्था भारत में हुई तब से अब तक इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने हिंदी समाचार चैनलों को कभी नहीं देखा। इससे साफ है कि आतंकवाद की यह घटना मीडिया को एक फार्मूला दे गई और तमाम आलोचनाओं के बावजूद भविष्य में भी मीडिया ऐसी घटनाओं को लाइव कवरेज के दौरान बेचते हुए दिखे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि किसी भी कीमत पर ज्यादा से ज्यादा टीआरपी बटोरना और फिर अपना बिजनेस बढ़ाना ही प्राथमिकता बन जाएगी तो कम से कम वहां तो पेशेवर जिम्मेदारी की भी अपेक्षा करना ठीक नहीं है। इन चार दिनों के दौरान खबरिया चैनल जमकर आतंक की फसल काट रहे थे वहीं दूसरे सेगमेंट के चैनलों को इसका नुकसान उठाना पड़ा। इस दरम्यान मनोरंजन चैनलों का कुल दर्शकों में 19.5 फीसदी हिस्सा रहा जबकि हिंदी फिल्म दिखाने वाले चैनलों को 15.1 प्रतिशत दर्शक मिले।
खबरिया चैनलों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों के शब्दों में कहें तो 26 नवंबर से तीस नवंबर मीडिया कवरेज के चार ऐतिहासिक दिन थे। मीडिया कवरेज के इन ऐतिहासिक दिनों की बदौलत 29 नवंबर को समाप्त हुए सप्ताह में हिंदी खबरिया चैनलों के पास कुल दर्शकों में से 16.1 फीसदी थे। जबकि इसके पहले के चार सप्ताहों के आंकडे़ देखें तो यह पता चलता है कि इस दौरान हिंदी समाचार चैनलों को औसतन हर हफ्ते 6.7 प्रतिशत लोग देखते थे। इससे यह बिल्कुल साफ हो जा रहा है कि सही मायने में इस आतंकवादी हमले ने खबरिया चैनलों के लिए संजीवनी का काम किया। दर्शकों की संख्या दुगना से भी ज्यादा हो जाना इस बात की गवाही दे रहा है।
इस दरम्यान सबसे ज्यादा फायदा आज तक को हुआ। इस घटना से पहले समाचार देखने वाले दर्शकों में से सत्रह फीसद लोग इस चैनल को देखते थे। वहीं इस घटना के दौरान आज तक को 23 फीसद लोगों ने देखा। इसके अलावा जी न्यूज के दर्शकों की संख्या भी ८ फीसद से बढ़कर ११ फीसदी हो गई। उस सप्ताह से पहले तक कुल दर्शकों की संख्या में स्टार न्यूज की हिस्सेदारी १५ फीसद थी। इस चैनल को भी बासठ घंटे तक लाइव कवरेज का फायदा मिला और दर्शकों की संख्या में एक फीसदी का ईजाफा हुआ और इसकी हिस्सेदारी उस सप्ताह में सोलह फीसद रही। जबकि १६ फीसद के साथ इंडिया टीवी, ११ फीसद के साथ आईबीएन सेवन और ८ फीसद के साथ चल रहे एनडीटीवी के दर्शक संख्या में इस आतंकी घटना के लाइव प्रसारण के दौरान भी कोई बढ़ोतरी नहीं हुई।
आतंकवादी हमले के लाइव कवरेज की फसल काटने के मामले में गंभीरता का लबादा ओढ़े रहने का ढ़ोग रचते रहने वाले अंग्रेजी खबरिया चैनल भी पीछे नहीं रहे। अंग्रेजी समाचार चैनलों में इस दौरान सबसे ज्यादा फायदा एनडीटीवी 24X7 को हुआ। आतंकी हमले से ठीक पहले वाले सप्ताह तक इस चैनल के पास अंग्रेजी समाचार चैनल देखने वाले २५ प्रतिशत दर्शक थे, जो आतंक के बासठ घंटे के लाइव कवरेज वाले सप्ताह में बढ़कर ३० फीसदी हो गए। दर्शकों में हिस्सेदारी के मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अंग्रेजी खबरिया चैनल टाइम्स नाउ का शेयर भी 29 नवंबर को समाप्त हुए सप्ताह में 23 फीसदी से बढ़कर 28 प्रतिशत हो गया। इस दौरान न्यूज एक्स के दर्शकों की संख्या में भी मामूली बढ़ोतरी दर्ज की गई। जबकि सीएनएन आईबीएन और हेडलाइंस टुडे के दर्शकों की संख्या में इस दौरान कमी दर्ज की गई।
आतंकवादी हमलों के दौरान इसके व्यावसायिक असर को लेकर हिंदी और अंग्रेजी के बिजनेस चैनलों पर भी जमकर चर्चा हो रही थी। यहां जो व्यावसायिक कयासबाजी चल रही थी वह कितना सही साबित होगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इस दौरान इन चैनलों की टीआरपी जरूर बढ़ गई। हिंदी के बिजनेस समाचारों वाले चैनलों की टीआरपी में संयुक्त तौर पर पचीस फीसदी का और अंग्रेजी के बिजनेस खबरों वाले चैनलों की टीआरपी में भी संयुक्त तौर पर तकरीबन दस प्रतिषत की बढ़ोतरी दर्ज की गई। टीआरपी पर ही समाचार चैनलों की आमदनी निर्भर करती है। टीआरपी और आमदनी का सीधा सा संबंध यह है कि विज्ञापनदाताओं के लिए किसी भी चैनल की दर्शक संख्या जानने का और कोई दूसरा जरिया नहीं है। इसी टीआरपी के आधार पर चैनलों को विज्ञापन मिलता है। हालांकि, टीआरपी मापने के तौर-तरीके पर भी सवालिया निशान लगते रहे हैं, जो तािर्कक भी हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आखिर महज सात हजार बक्सों और वो भी सिर्फ महानगरों में लगाकर पूरे देश के टेलीविजन दर्शकों के मिजाज का अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है। पर दूसरा रास्ता ना होने की वजह से धंधेबाज इसी के जरिए अपना-अपना धंधा चमकाने में मशगूल हैं।

मीडिया को मिली 'आतंकवाद' की संजीवनी

आम चुनाव नजदीक हैं। अगर सबकुछ ठीक रहा तो अप्रैल में आम चुनाव होंगे. आतंकवाद के खिलाफ राजनीतिक दल बड़ा प्रचार अभियान चलाएंगे. उम्मीद है कि इस बार यह प्रचार अभियान एक से डेढ़ हजार करोड़ के बीच होगा. इसका सीधा फायदा विज्ञापनों के रूप में मीडिया और विज्ञापन एजंसियों को मिलेगा.
आतंकवाद और मंदी का आपस में कोई संबंध हो सकता है? चलिए इसमें एक कड़ी और जोड़ देते हैं-राजनीति. अब कोई संबंध बनता है? अभी भी पूरा संबंध नहीं बना है. इसलिए इसमें मीडिया को भी शामिल कर लेते हैं. अब पूरी कड़ी बन जाती है- मंदी के इस दौर में जब चारों ओर संकट के बादल छाये हैं ऐसे में भारत में आतंकवादी हमलों ने मीडिया और विज्ञापन एजंसियों को अपना व्यापार बनाये रखने का मौका दे दिया है. यह सब इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि राजनीतिक दल चुनाव मैदान में थे.
26 तारीख को मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ. 27 तारीख को अफरा-तफरी का माहौल था. 28 नवंबर को भाजपा ने अखबारों में एक बड़ा सा विज्ञापन प्रकाशित करवाया पहले पेज पर जो कि आतंकवाद के खिलाफ था. यह विज्ञापन हिन्दी अंग्रेजी के सभी अखबारों और संस्करणों में था. विज्ञापन में कहा गया था कि "आतंक की चौतरफा मार, लगातार. सरकार कमजोर और लाचार." इसके बाद भाजपा को वोट देने की अपील की गयी थी. जवाब में 29 नवंबर को कांग्रेस ने एक विज्ञापन निकाला जिसमें कांग्रेस की ओर से आतंकवाद से जूझते सुरक्षाकर्मियों को नमन और श्रद्धांजिल दी गयी थी. इस विज्ञापन में कांधार काण्ड का जिक्र सबसे ऊपर किया गया था. साथ में कांग्रेस की ओर अपील की गयी थी कि यह राष्ट्र का प्रशन है, राजनीति का खेल नहीं".
चुनाव आयोग की सख्ती के कारण पिछले कुछ सालों से आम चुनाव के दौरान प्रचार का तरीका पूरी तरह से बदल गया है। दिल्ली वैसे भी महानगर है और दीवारों आदि पर पोस्टर चिपकाने की पूरी तरह से पाबंदी है लेकिन इस बार भोपाल व् पूरे मध्य प्रदेश में भी इस मामले में सख्ती दिखी . सार्वजनिक स्थानों पर भी उम्मीदवार पोस्टर नहीं लगा सकते. इसका असर यह हुआ है कि राजनीतिक दलों ने कारपोरेट कंपनियों की तर्ज पर विज्ञापन एजंसियां किराये पर लेने लगी है. ऐसे प्रचार अभियान में विज्ञापन एजंसियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. मसल कांग्रेस के लिए इस विधानसभा चुनाव में दिल्ली की 20 साल पुरानी विज्ञापन कंपनी क्रेयन्स एडवर्टाईसिंग कंपनी ने प्रचार अभियान संभाला तो भाजपा की ओर से हाईव कम्युनिकेशन्स इंडिया प्रा.लि. ने. हालांकि दोनों ही विज्ञापन कंपनियां यह नहीं बताती कि उन्हें इस काम के लिए कितना बजट आवंटित किया गया था लेकिन ऐसा अनुमान है कि इन विधानसभा चुनावों में विज्ञापन अभियान के लिए एजंसियों के माध्यम दोनों पार्टियों की ओर से कोई 150 करोड़ रूपये खर्च किये गये.
ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है मई में संभावित आम चुनाव तक यह बजट बढ़कर 1,000 करोड़ रूपये हो जाएगा. यह बजट और बढ़कर 1500 करोड़ रूपये तक जा सकता है. मंदी के इस दौर में जब विज्ञापन एजंसियों को कंपनियों और कारपोरेट घरानों की ओर बिजनेस की कमी झेलनी पड़ रही है, ऐसे में राजनीतिक दलों द्वारा विज्ञापन पर इतनी भारी भरकम रकम खर्च करने से एजंसियों को व्यवसाय की नयी संभावना दिख रही है. 2007 में देश में कुल विज्ञापन बाजार 19,800 करोड़ रूपये का था. ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि यह बाजार पिछले साल की ही तरह 20 से 22 प्रतिशत की दर से विस्तार करेगा. लेकिन ताजा आंकड़े बताते हैं कि विज्ञापन बाजार में इस साल अब तक केवल 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है. अब जबकि मंदी अपना फन फैला रहा है तब यह बढ़ोत्तरी और कम हो जाने की आशंका है. ऐसे में राजनीतिक दलों द्वारा विज्ञापनों पर भारी खर्च करने की संभावना देखते हुए एजंसियों की पौ-बारह है.
कांग्रेस के लिए विज्ञापन करनेवाले क्रेयन्स एडवर्टाईजिंग के अध्यक्ष रंजन बड़गोत्रा कहते हैं "अब रोज के हिसाब से बदलाव दिखाई दे रहे हैं. इन विधानसभा चुनावों के दौरान मुंबई हमलों के कारण पूरा परिदृश्य बदल गया था. फिर भी हमने उस हमले की निंदा करने तक अपने आप को सीमित रखा. हम उस हमले से कोई फायदा नहीं उठाना चाहते थे." इसके विपरीत भाजपा के लिए काम कर रही विज्ञापन एजंसी ने आखिरी दिन अपनी पूरी रणनीति बदलते हुए मुंबई हमलों को आधार बनाकर विज्ञापन जारी किये. दिल्ली में आतंकवाद को भाजपा बड़े स्तर पर भुनाना चाहती थी इसका खुलासा विजय कुमार मल्होत्रा ने भी किया था. हमले के अगले दिन 27 नवंबर को मीडियावालों से बात करते हुए मल्होत्रा ने कहा था कि "बाटला हाउस की घटनाओं के बाद लोगों में बहुत गुस्सा है. सरकार आतंकवाद को महिमाण्डित कर रही है." मुंबई पर हुए आतंकी हमले को मुद्दा बनाने का संकेत देते हुए मल्होत्रा ने कहा था "यह देश पर हमला है और दिल्ली के नागरिकों को इस आतंक के खिलाफ अपना मतदान करना होगा. सरकार को भी इस बात का अहसास हो जाना चाहिए कि जनता क्या सोचती है."8 दिसंबर को चुनाव नतीजा आने के बाद शीला दीक्षित ने पत्रकारों से कहा कि "विकास मुद्दा बना, आतंकवाद नहीं" तो साफ हो गया कि भाजपा के उस प्रहार से कांग्रेस के अंदर भी बेचैनी थी लेकिन चुनाव नतीजों ने उस बेचौनी से कांग्रेस और शीला दीक्षित दोनों को उबार लिया.
चुनाव आयोग का दिशा-निर्देश है कि लोकसभा का उम्मीदवार 25 लाख और विधानसभा का उम्मीदवार 10 लाख रूपये खर्च कर सकता है. लेकिन सब जानते हैं कि वास्तविक खर्च इससे कई गुना ज्यादा होता है. इन खर्चों में पार्टी के केन्द्रीय कार्यालय और प्रदेश कार्यालय द्वारा खर्च किये गये खर्चे शामिल नहीं होते. पिछले आमचुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा लगभग 500 करो़ड़ रूपये खर्च किये गये थे जबकि इस साल पांच विधानसभा चुनावों में ही कोई 150 करोड़ रूपये विज्ञापन पर खर्च कर दिये गये. जिसमें अखबार के अलावा डिजिटल मीडिया और एसएमएस, आउटडोर और टीवी पर दिये जानेवाले विज्ञापन शामिल हैं. मसलन दिल्ली में विधानसभा चुनावों के दौरान सभी आउटडोर स्पेश भाजपा और कांग्रेस ने बुक करा लिये थे. पहले जो राजनीतिक दल जबरिया आउडोर होर्डिंग्स पर अपने बैनर टांग देते थे इस बार उन्होंने बाकायदा कान्ट्रेक्ट करके उन स्थानों को खरीद लिया था और राज्य के लोगों से अपनी पार्टी के लिए वोट मांगा.
विज्ञापन एजंसियों के फायदे में रहने का सीधा मतलब है मीडिया उद्योग का फायदे में रहना. अब मीडिया हाउस भले ही आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीतिक दलों को कितनी भी गाली दे लें लेकिन वे भी जानते हैं कि आतंकवाद के विरोध में जो प्रचार अभियान राजनीतिक दलों की ओर से चलेगा वह सारा पैसा मीडिया घरानों के पास ही आनेवाला है, क्योंकि एक विज्ञापन एजंसी तो महज १५ प्रतिशत पैसा ही अपने पास रखती है बाकी पैसा मीडिया हाउस के पास चला जाता है. आतंकवाद में मीडिया हाउस को अपने टिके रहने की संभावना नजर आ रही है इसीलिए हर चैनल आतंकवाद पर विशेष प्रसारण कर रहा है और ऐसे विशेष प्रसारणों को मिलनेवाले संभावित विज्ञापनों के लिए भरपूर मार्केटिंग भी कर रहा है. देश पर बढ़ता आतंकवाद मीडिया के लिए इस मंदी में उसी तरह संजीवनी बन रहा है जैसे किसी का संकट किसी के लिए संभावना बन जाती है.
ये आलेख विस्फोट से लिया गया है ताकि सुधि पाठक मीडिया के बारे में जान सके।

Wednesday, November 26, 2008

यदि साहित्य हावी न होता तो सुविख्यात पत्रकार होते प्रेमचंद

आज मन में विचार आया की अपने फेवरिट मुंशी प्रेमचंद को पड़ा जाए और इसी इरादे से उनकी किताबो में सर खपाने लगा। नेट पर भी तलाश किया और दिन भर की मशक्कत के बाद कुछ विचार आए जिन्हें वेबदुनिया के सहयोग से यहाँ लिख रहा हूँ.
प्रेमचंद ने अँग्रेजी सत्ता का विरोध तो किया ही भारत की उस सत्ता के विरुद्ध भी अपनी कलम चलाई जो आम जनता का शोषण करते हुए अँग्रेजी सत्ता का साथ दे रही थी। स्वराज्य कैसा होगा, इसकी व्याख्‍या भी वे विचारवान पत्रकार के रूप में करते रहे। उनका कहना था कि स्वराज्य पद और अधिकार की प्राप्ति कराने के लिए नहीं, गरीब किसानों और मजदूरों के हितार्थ अनुकूल स्थितियों की सृष्टि करने के लिए होगा। स्वराज्य में दीनों-दलितों के उद्धार को वरीयता दी जाएगी। उच्च वर्ग के हितों के लिए देश की सामान्य जनता के हितों का बलिदान नहीं होने पाएगा।प्रेमचंद की दृष्टि मानवीय संवेदना से पुष्ट थी, एक साहसिक प‍त्रकारिता का परिचय देते हुए उन्होंने जातिवाद, क्षेत्रवाद, विचारवाद, व्यक्तिवाद आदि का भी विरोध किया। उस समय ऐसे वाद प्रबल थे, इनके समर्थक शक्ति संपन्न थे, फिर भी प्रेमचंद झुके नहीं। अपनी पत्रकारिता को रचना और विचार की पत्रकारिता, राष्ट्रीय आंदोलन की पत्रकारिता, दीनों-दलितों के समर्थन की पत्रकारिता बनाए रहे।प्रेमचंद की पत्रकारिता में पूर्वाग्रह को कोई स्थान नहीं था। उन्होंने अपने उन विरोधी व्यक्तियों को भी 'हंस' में बराबर स्थान दिया, जिनके विचार उनके विचारों से मेल नहीं खाते थे। पत्रकारिता का यह गुण विरले हुआ करता है। इस दृष्टि से भी प्रेमचंद विरल पत्रकार के रूप में याद किए जाएँगे। हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए भी प्रेमचंद अपने संपादकीयों में अपनी भावानाएँ व्यक्त करते रहे हैं। उनका विचार था कि 'पराधीन भारत में न हिंदू की ख़ैर है, न मुसलमान की।' हंस में जो संपादकीय टिप्पणियाँ छपा करती थीं, उनका शीर्षक 'हंसवाणी' हुआ करता था। इन 'हंसवाणियों' में प्रेमचंद की निर्भीकता, स्पष्टोक्ति, राष्ट्रीय ऊर्जस्विता, राष्ट्रीय ओजस्विता की अभिव्यक्ति हुआ करती थी। 'हंस' का प्रकाशन सन 1930 में प्रारंभ हुआ था। सिर्फ पाँच वर्ष बीतने पर वह अखिल भारतीय पत्र के रूप में स्थापित हुआ तो इसकी पृष्ठभूमि में हंसवाणियाँ ही थीं, जिन्हें पढ़ने के लिए लोग लालायित रहा करते थे। वस्तुत: 'हंस' तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन का मुखपत्र जैसा बन गया था, स्वयं प्रेमचंद आंदोलन के शक्ति स्रोत जैसे मान्य हो रहे थे। एक पत्रकार के लिए जिन अपेक्षाओं को मूर्तरूप देना आवश्यक होता है, प्रेमचंद वैसे ही पत्रकार थे, उनकी हंसवाणियों में आह्वान, आलोचना, सुझाव, विरोध, समर्थन आदि का समावेश परिवेश और परिस्थिति की आवश्यकतानुसार होता था। बहुजन हिताय में जो कर्म होता, वे उसके प्रशंसक बन जाते, परंतु इसके विपरीत वाली कार्यप‍द्धति की आलोचना करने से पीछे नहीं हटते थे। वह गाँधी के भक्त थे, परंतु अंधभक्त नहीं थे। मार्च 1931 में कांग्रेस का ‍अधिवेशन हुआ था। उसकी समाप्ति पर उन्होंने 'हंस' में जो विचार व्यक्त किए थे, उसका एक अंश इस प्रकार है - 'अब कांग्रेस का ध्येय कांग्रेस के सामने है। वह गरीबों की संस्था है। गरीबों के हितों की रक्षा उसका महान कर्तव्य है, उसके विधान में मजदूरों, किसानों और गरीबों के लिए वही स्थान है जो अन्य लोगों के लिए, वर्ग, जाति, वर्ण आदि के भेदों को उसने एकदम हटा दिया है। हम कांग्रेस के इस प्रस्ताव के लिए बधाई देते हैं, स्वराज्य की इस व्याख्या को लाखों की संख्‍या में बाँटना चाहिए, ऐसा कोई घर न होना चाहिए, जिसमें इसकी एक प्रति न पहुँचे। अब जनता को इस विषय पर कुछ संदेह न रहेगा कि वह किन स्वत्वों के लिए लड़ रही है।' यह टिप्पणी प्रेमचंद की जागरुक और सुलझी हुई पत्रकारिता का द्योतक है, इसमें समर्थन है, सुझाव भी है।यदि प्रेमचंद कथा साहित्य के सृजन को अनवरत स‍मर्पित रहे तो पत्रकारिता के प्रति भी उनका समर्पण अपेक्षाकृत कम नहीं माना जाएगा। 'हंस' निकालते रहने के लिए उन्हें अर्थाभाव के अलावा सरकारी दमन को भी झेलना पड़ा था। एक समय तो सरकारी दमन के विरुद्ध 'हंस' में टिप्पणी लिखने के कारण उनसे जमानत माँग ली गई थी। उन दिनों प्रेस की स्वतंत्रता आज जैसी नहीं थी। यदि शासन के विरुद्ध कुछ लिखा जाता था, तो प्रेस को जमानत के तौर पर नकद धनराशि अदा करनी होती थी। न देने पर पत्र को बंद कर देना पड़ता था। पत्रकारिता के प्रति वह किस सीमा तक लगनशील थे, इसका अनुमान उन सौ से अधिक टिप्पणियों से लगाया जा सकता है, जो उन्होंने 'हंस' की संपादन अवधि में लिखकर प्रकाशित की थीं।उनका विचार था कि 'पराधीन भारत में न हिंदू की ख़ैर है, न मुसलमान की।' हंस में जो संपादकीय टिप्पणियाँ छपा करती थीं, उनका शीर्षक 'हंसवाणी' हुआ करता था। इन 'हंसवाणियों' में प्रेमचंद की निर्भीकता, स्पष्टोक्ति, राष्ट्रीय ऊर्जस्विता...... ये टिप्पणियाँ यह भी प्रदर्शित करती हैं कि वह पत्रकार के रूप में कतने सजग थे। उन्होंने धर्म, संस्कृति, शिक्षा, राष्ट्रभाषा, समाज, महिला, स्वतंत्रता संग्राम, विश्वयु्द्ध, हिंदू-मुस्लिम एकता एवं छूत-अछूत, किसान-मजदूर, स्थानीय शासन, साहित्य, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्या आदि अनेकानेक विषयों पर अपने नितांत मौलिक विचार रखे। वह अपने समकालीन किसी भी महान व्यक्ति के विचारों के अनुयायी नहीं रहे, सच तो यह है कि किसी दूरदर्शी, निष्पक्ष और प्रबुद्ध पत्रकार से ऐसी ही आशा की जाती है। निष्कर्षत: प्रेमचंद की पत्रकारिता किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यदि उनके ऊपर उनका साहित्य हावी न होता तो वह एक सुविख्यात पत्रकार के रूप में भी युगों-युगों तक याद किए जाते।

Monday, October 27, 2008

ख़बर करना ठीक, ख़बर बनना नही

हँसता मुस्कुराता २८ वर्षीय नौजवान सुनील यादव अपने चेहरे से किसी को ये अहसास तक नही होने देता है की उसे ब्रेन ट्यूमर जैसी बीमारी है, लेकिन एसा सच में है। यह सुनील कोई और नही बल्कि मीडिया का सिपाही है जो जिन्दगी के सबसे बडे अभिशाप गरीबी के साथ बीमारी से भी जूझ रहा है। थोड़े दिन पहले दैनिक भास्कर के लिए मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में अपनी खबरों से धूम मचाने वाला सुनील आज मदद की आस में भटक रहा है। लेकिन उसने हिम्मत नही हारी है और आज भी अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन बखूबी कर रहा है। जुलाई 2008 में सुनील के ब्रेन ट्यूमर का आपरेशन भोपाल मेमोरियल अस्पताल में हुआ और डॉ ने भरोसा दिलाया की वह ठीक हो जाएगा लेकिन उसके सपनो को उस वक्त झटका लगा जब उस ये मालूम हुआ की उस एक और ब्रेन ट्यूमर है किसका आपरेशन संभव नही है। बीमारी और कमजोरी के चलते उसे घर बैठना पड़ रहा है और अपनों ने उससे मुंह मोड़ लिया है। सुनील मंडीदीप के पास सतलापुर का रहने वाला है और उसके पिता व् भाई एक कंपनी में काम करके जेसे तैसे घर चलते है। पहले हुए आपरेशन में एक लाख रूपये लग चुका है और इलाज के लिए फ़िर एक लाख से भी ज्यादा की जरूरत उसे है। सुनील जिन्दगी तो जी रहा है लेकिन दिन गिन-गिनकर। अब तक मदद के लिए कोई हाथ आगे नही आए हैं।
कभी सुनील मंडीदीप में पत्रकारिता करता था और लोकल राजनेता से लेकर अन्य लोगो की जान हुआ करता था लेकिन आज उनमे से लगभग सभी ने सुनील से दूरी बना ली है। सुनील कहता है की जिन्दगी है वेवफा एक दिन ठुकराएगी। वह कहता है की खबर बनाना ठीक है लेकिन खबर बनना ठीक नही और ओह भी ऐसे।

Saturday, October 25, 2008

माइक पर भारी डंडा

भोपाल के पत्रकारों ने कभी नही सोचा था की उनके ऊपर पुलिस के डंडे बरसेंगे और वे कुछ कर भी नही पायेंगे। लेकिन ऐसा हुआ है और वह भी तब जब पत्रकार सपा नेता अमरसिंह को कवर करने गए थे। अब समझ नही आता की पत्रकारों को अमरसिंह को कवर करने की सजा मिली है या पुलिस ने इस बात का अहसास दिलाया है की अब आचार संहिता लग गई है और अब माइक की जगह डंडे का बोलबाला होगा। इंडिया टीवी के पत्रकार अनुराग उपाध्याय तो पूरे दिन अस्पताल से बहार नही आ सके। वही बीटीवी के कैमरामेन इकबाल आज भी अपने हाथ पर लगे पुलिस के डंडे की दास्ताँ अपने साथियों को सुना रहे है और उस दिन को कोस रहे हैं जब वे अमर सिंह को कवर करने एअरपोर्ट गए थे। इस घटनाक्रम के बाद पुलिस के आला अधिकारियो ने दो पुलिस वालों को सस्पेंड कर इतिश्री कर दी लेकिन क्या इससे पत्रकारों के जख्मो पर मरहम लग जायेगा। प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियों ने भी बहुत ज्यादा तवज्जो इस मामले को नही दी और हालचाल पूछकर अपने होने का अहसास करा दिया। सबसे ज्यादा असंवेदनशीलता अगर किसी ने दिखाई है तो वह हैं टीवी चेनल जिन्होंने अपने ही चेनल में काम करने वाले पत्रकारों की ख़बर को तवज्जो नही दी। इसकी एक वजह तो जान्हवी दुबे ने bhadas4media पर अमर सिंह को कवर करने जाओ तो हेलमेट पहनो बता दी है और इसकी दूसरी वजह मध्य प्रदेश के पत्रकारों के प्रति पक्षपात वाला मामला लगता है। इसमे कोन सी बात सही है ये चेनल वाले ही जाने लेकिन पत्रकारों पर लगातार हमले सोचने पर जरूर majboor करते हैं

Friday, October 24, 2008

अमां हम क्यों खामोश रहे

क्या सूरमा भोपाली खुश होंगे
sholy फ़िल्म में जितने भी पात्र थे वे सभी लोकप्रिय हुए लेकिन सूरमा भोपाली ने अपनी अलग जगह बनाई लेकिन वे आज दुखी होंगे क्योंकि जब इस ब्लॉग को बनाना शुरू किया तो लोगो ने कहा की इसका नाम भोपाली शब्द से मत जोड़ना और वजह बताई भोपाली शब्द को इज्ज़त की नजरो से न देखा जाना। क्या भोपाली शब्द इतना गया गुजरा है की उसके नाम से ब्लॉग नही बना सकते। रतलाम के रवि, रवि रतलामी नाम से ब्लॉग बनाते है और वह पुरे देश में हिट होता है लेकिन भोपाल का रहने वाले कहते है की में भोपाली शब्द का इस्तेमाल न करूँ। क्यों न करू भोपाली शब्द का इस्तेमाल, मेरे भोपाल ने गैस हादसे को सहा और आज उससे उबरकर विकाश के चरम की और बढ रहा है। अगर किसी को भोपाली शब्द से नफरत है तो वह भोपाल क्यों नही छोड़ देता। क्या आप बिहारी कहलाना पसंद करोगे जहाँ खुलेआम हिंसा होती है, क्या आप मराठी कहलाना पसंद करोगे जहाँ किसी और को रहने का अधिकार नही दिया जाता। कोई प्रदेश या जाती ख़राब नही होती है ये तो माहोल बनाया जाता है।
भोपाल को सलाम
आज हम भोपाल की तारीफ़ करते नही थकते क्योंकि ये तालो का शहर है लेकिन तालो के लिए भोपाल की तारीफ़ करने के बजाय उसकी जिजीविषा के लिए यहाँ के लोगो की तारीफ़ करना चाहिए ऐसा हुआ भी है, लेकिन अपने ब्लॉग पर में उनको सलाम न करू जिन्होंने विश्व की सबसे भीषण त्रासदी में अपनी जान खोई और इस हादसे में जिन्होंने सीधे यमराज से भिड़ने का जज्बा दिखाया, तो ये सरासर बेईमानी होगी
भीम सिंह\जाहिद मीर

इनका अंदाज निराला है


ये जाहिद मीर
जब डीबी स्टार शुरू हुआ था तो में राज एक्सप्रेस में था और हर दिन डीबी स्टार पड़कर लगता था की कोन है ये जाहिद मीर जो इतना बिंदास होकर काम करता है जब १ जुलाई को मैने डीबी स्टार में काम शुरू किया तो जाहिद मीर के साथ कम किया और लगा की वाकई जाहिद भाई को फोटो जर्नलिस्ट कहलाने का haqdaar है वे न केवल एक अच्छे फोटोग्राफर है बल्कि एक अच्छे इन्सान भी है ये में इसलिए नही लिख रहा हूँ की मेरे साथ ब्लॉग में सहयोग करेंगे बल्कि में यहाँ इस बात का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ की ब्लॉग अभिव्यक्ति का मंच है और हम अक्सर अपनों की खूबियों को बयान नही करते है जाहिद भाई में एक पत्रकार बनने की सारी संभाvanaa hai lekin ve ispar dhyan nahi dete

भोपाल के लिए कुछ भी करेगा



नमस्कार
स्वागत है आपका भोपाल के इस bheembhopali ब्लॉग पर जिसमे मिलेगा आपको भोपाल की उन शाख्सियितो से रूबरू होने का मोका जो अपने दिलो में रखते है अपने तालो के ताल भोपाल के लिए जज्बा
इनमे शामिल होंगे शहर के तमाम लोग fir chahe ve shayar ho, polition ho ya fir ho adhikari is abhiyan me मेरा साथ देंगे रतलाम से भोपाल आए जाहिद मीर, वे अपनी खूबसूरत तस्वीरों से आप तक लायेंगे हकीकत को सामने
तो तैयार हो जाइये उन लोगो से मिलने के लिए जो न केवल बताते है समस्या बल्कि सुझाते है रास्ता

हर तारीख पर नज़र

हमेशा रहो समय के साथ

तारीखों में रहता है इतिहास