Monday, December 14, 2009

मजाक बन गई मप्र सरकार की राजेन्द्र माथुर फैलोशिप

प्रारंभिक दौर में गरिमा के साथ सुयोग्य पत्रकारों को दी गई यह फैलोशिप ताजा दौर में रेवडी की भांति चीन्ह-चीन्ह कर दी जा रही है। दुख तो यह है कि फैलोशिप देने वाले और पाने वाले के अलावा शायद ही कोई जान पाता हो कि मूर्धन्य पत्रकार स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर कोई राष्ट्रीय फैलोशिप भी दी जा रही है।
राजेन्द्र पाराशर
भोपाल। लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर के नाम पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रारंभ की गई फैलोशिप अब मजाक बनकर रह गई है. सौम्य और शालीन पत्रकारिता के प्रतीक स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर दी जाने वाली फैलोशिप वर्तमान दौर में निहित स्वार्थों की राजनीति के चलते अपने-अपनों को उपकृत करने का जरिया बन गई है. नईदुनिया और नवभारत टाइम्स जैसे सुप्रतिष्ठित अखबारों के संपादक रहे और पत्रकारों की संस्कारित पीढी तैयार करने वाले स्वर्गीय श्री माथुर ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके नाम का इस तरह मखौल उडाया जाएगा अथवा उनके नाम पर फैलोशिप स्थापित कर इस प्रकार उनकी छीछालेदर की जाएगी. प्रारंभिक दौर में गरिमा के साथ सुयोग्य पत्रकारों को दी गई यह फैलोशिप ताजा दौर में रेवडी की भांति चीन्ह-चीन्ह कर दी जा रही है. दुख तो यह है कि फैलोशिप देने वाले और पाने वाले के अलावा शायद ही कोई जान पाता हो कि मूर्धन्य पत्रकार स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर कोई राष्ट्रीय फैलोशिप भी दी जा रही है. वर्तमान में फैलोशिप के साथ योग्यता के मापदंड भी बदल गये हैं. प्रदेश में जब सरकार कांग्रेस की थी तो फैलाशिप पाने वाला अलग वर्ग हुआ करता था और भाजपा की सरकार आने के साथ योग्यता के मापदंडों में आरएसएस से जुडाव या उसके अनुमोदन की शर्त जुड गई है या जोड दी गई है. स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर जब इस फैलाशिप की शुरूआत हुइर्, तब सरकार की मंशा साफ थी, उसके मापदंड तय थे और योग्यता का भी पूरा-पूरा ख्याल रखा गया था.यहां तक की चयनकर्ता भी उतने ही तटस्थ रहे जिन्होंने हर बात पर फैलोशिप पाने वाले को परखा उसके बाद ही उसका चयन किया. यही वजह थी इस फैलोशिप की शुरूआत के समय जिन लोगों को यह दी गई वे योग्यता के आधार पर लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार थे. तब सरकार इस फैलोशिप की पूरी गरिमा भी बनाए हुए थी, साथ ही जिसे यह दी जाती थी उससे शर्तों के अनुसार पूरा कार्य भी कराया जाता था. इसकी गरिमा कुछ ऐसी बन गयी थी कि भव्य समारोह में जब उस लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार को यह फैलाशिप दी जाती थी तब उसे भी यह महसूस होता था कि पत्रकारिता के इस कठिनाईयों भरे सफर में उसने ऐसा कार्य किया है, जिसका प्रतिफल वह आज पा रहा है. इस प्रतिफल के रूप में उसे सरकार नवाज रही है और पूरा देश यह जान रहा है कि स्वर्गीय माथुर साहब के नाम को जीवित रखने के लिए कुछ कार्य हुआ है.आज जब हम वर्तमान में इस फैलाशिप के बारे में जानने की कोशिश करते हैं, तो ऐसा महसूस होता है कि वह केवल एक ऐसा हवा को झोंका था जो आया और अपने साथ सब कुछ उडा कर ले गया. यह सब केवल चार वर्षों तक ही ठीक-ठीक चला. याने वर्ष १९९६ से शुरू की गई यह फैलोशिप वर्ष २००० के बाद बंद सी हो गई थी. सबसे पहले इसे पाने वाले लब्ध प्रतिष्ठि पत्रकार थे श्री राजकिशोर, इसके बाद मध्यप्रदेश के श्री शिवअनुराग पटेरिया जिन्हें वर्ष १९९७ की फैलाशिप दी गई. इसके बाद १९९८ की फैलाशिप श्री हरीश पाठक को और वर्ष २००० में यह श्री उर्मिलेश को दी गई. वर्ष १९९९ में यह फैलोशिप किसी को नहीं दी. इसके बाद निरंतर तीन वर्षो याने वर्ष २००१ से २००३ तक ये फैलोशिप किसी को ही नहीं दी गई. राज्य में जब वर्ष २००३ में सत्ता परिवर्तन हुआ और बंद हुई इस फैलोशिप की ओर नजर गई तो सरकार ने इसकी शुरूआत की, पर पता ही नही चला की कब इसकी शुरूआत हो गई. इतना जरूर सुनने में आया कि वर्ष २००४ से २००७ तक लगातार यह फैलोशिप दी गई, मगर कब, किसने और किसे दे दी यह जानकारी किसी को नहीं. इसे हम शासकीय उपेक्षा या सरकार की बेरूखी ही कह सकते है, जो बंद फैलोशिप को शुरू तो की परन्तु इस तरह की किसी को इसकी जानकारी ही न हो. याने जिस प्रकार सरकार प्रारंभिक काल में इसके लिए प्रचार प्रसार करती थी, गरिमापूर्ण आयोजन होता था वह इसलिए कि और भी इस फैलोशिप के लिए प्रेरित हों, ताकि स्वर्गीय माथुर के नाम पर शुरू किया गया यह कार्य अनवरत उसी निष्ठा के साथ चलता रहे जिस निष्ठा के साथ श्री माथुर साहब पत्रकारिता करते रहे.वर्तमान में इस फैलोशिप के साथ सरकार की मंशा तो बदली साथ ही इस पर एक विचारधारा वाले समूह का कब्जा सा हो गया है. उन्हीं लोगों को इसके जरिए उपकृत किया जा रहा है जो उस विचारधारा से या उन विचारधारा वालों से जुडे हैं. फैलोशिप के नाम पर पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थान तो दूर की बात है, परिचय के भी मोहताज लोगों को यह फैलोशिप मिल रही है. इसका उदाहरण है कि वर्ष २००४ से २००७ तक के लिए जिन लोगों को यह फैलाशिप उपकृत करने के लिए दी गई वे लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकारों की श्रेणी में तो नजर नहीं आते हैं. वर्ष २००४ के लिए यह फैलोशिप कु. मोना बिल्लोरे, वर्ष २००५ के लिए श्री अंजनि कुमार झा, २००६ के लिए श्री सुरेश शर्मा और २००७ के लिए श्याम यादव को दी गई. पत्रकारिता के क्षेत्र में मोना बिल्लोरे गुमनाम नाम के समान है. वे किसी वक्त जब भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र नवभारत में श्री विजयदत्त श्रीधर सम्पादक हुआ करते थे तब इस समाचार पत्र में कार्यरत थीं, इसके बाद उनका कार्यकाल सप्रे संग्रहालय और वर्तमान में वे सरकार के उपक्रम वन्या प्रकाशन में कार्यरत हैं. इन्हें किस योग्यता पर खरा पाया गया चयनकर्ता ही बता सकते हैं. वहीं श्री अंजनि झा और श्री सुरेश शर्मा एक विचारधारा से जुडे पत्रकारों के रूप में जाने जाते हैं. श्री झा जो कि बिहार से भोपाल आए, लेकिन राजधानी भोपाल में ही पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं कर पाए कि उन्हें पत्रकार के रूप में ख्याती मिली हो, लेकिन वे संघ की विचारधारा वाले संवाद केन्द्र से जुडे होने का फायदा जरूर उठा गए. बिहार से भोपाल आकर अंतरराष्ट्रीय विषयों के विशेषज्ञ माने जाने वाले लब्धप्रतिष्ठित स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर के नाम स्थापित फैलोशिप के वे कैसे हकदार बन गए यह तो चयनकर्ता ही जाने. इसी तरह संघ की विचारधारा वाले और 'अपनी सरकार÷ व 'सरकार के वे÷ कहने वाले श्री सुरेश शर्मा से तो सभी परिचित हैं. दैनिक स्वदेश से व्यापार प्रतिनिधि के रूप में पत्रकारिता का सफर शुरू कर उन्होंने खुद का एक साप्ताहिक अखबार 'शिखर मेल÷ निकाला. इस अखबार के वे मालिक, सम्पादक रहे. इनके बारे में बताते हैं कि अवसर पाते ही अखबार के नाम सरकार से जमीन आवंटित कराई और समय आते ही इसे किसी बिल्डर को अखबार सहित बेंच दी. श्री शर्मा का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वे हमारी सरकार के नाम पर ओजपूर्ण बातें कर वह सबकुछ पा जाना चाहते हैं जो कांग्रेस शासनकाल में वे नहीं पा सके थे. उन्होंने भी अवसर पाते इस फैलोशिप के लिए दरवाजा खटखटा दिया और फैलोशिप पा गए. इसी तरह उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद के रहने वाले श्यामलाल यादव को वर्ष २००८ के लिए इस फैलोशिप से नवाजा गया. दुर्भाग्य की बात है कि किसी सरल, सौम्य और किसी गुट में शामिल न रहे स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर स्थापित फैलाशिप आज कैसे और किन पत्रकारों को मिल रही है, यह सब देख और सुन दुख होता है. उन लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकारों को भी इसी बात का मलाल है जिन्हें पूर्व में इस फैलोशिप से नवाजा गया. आज वे जब मध्यप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित इस फैलोशिप की दुर्गति होते या शासनतंत्र द्वारा निहितस्वार्थों के चलते करते देखते हैं तो कुछ समय के लिए सहम जाते हैं, और कुछ कह भी नहीं पाते हैं. आज जिस तरह यह फैलोशिप दी जा रही है उसके बारे में न तो कोई यह जान पाया है कि कब यह वितरित की गई, कब चयनकर्ताओं ने इनका चयन कर लिया और वे किस विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं. इन शोधार्थियों द्वारा फैलोशिप के तय मापदंडों को पूरा भी किया जा रहा है या नहीं ।
राजेन्द्र पराशर वर्तमान में लोकमत समाचार में कार्यरत हैं।

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