Thursday, May 12, 2011

शुक्रवार से अखबारों की समीक्षा

शुक्रवार से आई4मीडिया पर देश की राजधानी दिल्ली के साथ मप्र की राजधानी भोपाल के अखबारों की समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। इसके साथ ही पॉजीटिव और बेहतर खबरों की फोटो भी प्रकाशित की जाएगी। ताकि देश भर के पत्रकार इन खबरों को देख सकें। इसके लिए हम सभी अखबारों से सहयोग की अपेक्षा करते हैं।
संचालक-आई4मीडिया

"कलयुग' का कल्कि अवतार

टैगोर ने सदी पहले कह दिया था कि कलियुग नहीं, 'कलयुग आ रहा है जिसका कल्कि अवतार घोड़े की बजाय कल (यानी मशीनों) पर सवारी करते हुए आसमान से उतरेगा। सचमुच, उपग्रह से वायु तरंगों पर सवार होकर कलयुगी मल्टी मीडिया अवतरित हुआ है।
मृणाल पाण्डे, लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

दाग अच्छे नहीं होते
असत्यापित टेपों ने बहस का ऐसा मुद्दा बना दिया कि अन्ना आंदोलन का असली मुद्दा पीछे रह गया। साबुन के विज्ञापन झूठ कहते हैं। दाग अच्छे नहीं होते। बेबुनियाद दाग तो कभी नहीं। युग इतनी तेजी से बदल रहा है कि मीडिया के संदर्भ में बदलाव शब्द अपने पुराने मायने खो चला है। पिछली सदी के पहले साठ बरसों में खबरिया जगत में प्रिंट मीडिया की भव्य बादशाहत कायम रही। फिर ट्रांसमीटरों और फिर जमीनी केबलों से घरों तक खबरें और मनोरंजन परोसने वाला टीवी सैटेलाइट से जुड़कर मीडिया का नया आकाशोन्मुखी नेता बन गया। न बे के दशक में इराकी हमले के दौरान अमेरिकी टीवी चैनल सीएनएन ने हजारों मील दूर अटलांटा से इराक युद्ध का चमत्कारी लाइव कवरेज दुनिया भर तक बीम करते हुए जिस नई ग्लोबल सूचना संचार व्यवस्था का ध्वजारोहण कराया, उसकी मदद से लोग दिन या रात को जब जी चाहे 24 & 7 छोटे पर्दे पर ताजातरीन खबरों का पीछा कर सकते थे। पेंटागन के निर्देश में सुदूर इराक पर सफलतापूर्वक दागी जा रही पेंटागन की मिसाइलों की छवियों ने अमेरिका से एशिया तक प्रिंट मीडिया का एकछत्र वर्चस्व खत्म कराया और बीबीसी सरीखे धाकड़ प िलक ब्रॉडकास्टर तक को खमठोंक चुनौती दे दी। भारत में जब उपग्रह से दुनियाभर की ताजा खबरें चौबीसों घंटे हवा के घोड़े पर सवार हो आने लगीं तो रात को छपकर सुबह बंटने वाले अखबारों से हमारे ग्राहकों को भी बासी गंध आने लगी। केबल युग की धमाकेदार शुरुआत के बाद तेजी से खबरिया टीवी के लोकप्रिय भाषायी संस्करण बन गए। बीस सालों से भी कम समय में केबल टीवी ने मीडिया की हर विधा में खबरों की भाषा, चित्रों की प्रस्तुति, खबरों का तर्जे बयां और उन पर बहस के तरीके बदल दिए और खबरों के संकलन से लेकर उन पर सार्वजनिक बहस के मंचों तक जनभागीदारी बढ़ाई। टैगोर ने सदी पहले कह दिया था कि कलियुग नहीं, एक कलयुग आ रहा है, जिसका कल्कि अवतार घोड़े की बजाय कल (यानी मशीनों) पर सवारी करते हुए आसमान से उतरेगा। सचमुच, उपग्रह से वायु तरंगों पर सवार होकर नया कलयुगी मल्टीमीडिया खबरों की दुनिया में जब से अवतरित हुआ है, उसने टीवी के साम्राज्य पर वैसा ही हल्ला बोल दिया है, जैसा कभी युवा टीवी ने बुढ़ाते प्रिंट मीडिया पर बोला था। युवा पीढ़ी नवीन मल्टीमीडिया टीवी का असली हरावल दस्ता है। ऊर्जामय और निरंतर हलचलभरी जिंदगी के प्रेमी शहरी युवाओं को लंबे-चौड़े अखबार जितना उबाते हैं, उतना ही चटपटी छोटी खबरों को कहीं भी, कभी भी पकड़ सकने वाले लैपटॉप, आईपैड और थ्रीजी मोबाइल के मल्टीपरपज मॉडल उनको मोहते हैं। वे कमरे में सोफे पर बैठे-बैठे टीवी भी यों देखें? उन्नत, सस्ते और यूजर फ्रेंडली लैपटॉप और थ्रीजी मोबाइल बातून युवा बहुल एशिया को ज्यों ही उपल ध हुए, वे टीवी या अखबारों को हमारे यहां भी वैसे ही अप्रासंगिक बना देंगे, जैसा मोबाइल ने फोन की लैंडलाइनों को बना डाला है। फेसबुक और ट्विटर सरीखी सोशल नेटवर्किंग साइट्स नेट पर उतरते ही दुनियाभर के युवाओं को आपस में जोड़ चुकी हैं और इस सोशल मीडिया के मार्फत युवा पीढ़ी ने मनोरंजन व खबरों की दुनिया के साथ अपना एक सीधा नया रिश्ता बना लिया है। अब उनकी खुद की भूमिका खबरों के निष्क्रिय पाठक या दर्शक या श्रोता के बजाय उनमें एक सक्रिय आक्रामक भागीदार की है। आज फेसबुक के करोड़ों सदस्य हैं और इसका दूसरा बिरादर ट्विटर भी उतना ही लोकप्रिय है, क्योंकि वह शाहरुख से शशि थरूर तक हर अभिनेता या नेता, मंत्री या संतरी को आपस में तुरंत जानकारी साझी करने और संक्षिह्रश्वत निजी राय प्रसारित करने का मौका दे रहा है। इस नई तरह की लोकतांत्रिकता का असर है कि साल के शुरुआती तीन महीनों में ही (ट्विटर पर) चीन से शुरू लोकतंत्र समर्थक 'चमेली क्रांतिÓ (जैस्मीन रिवोल्यूशन) की सुगंध ने चंद दिनों में पूरे मध्य एशिया में फैलकर वहां दशकों से स ाा पर काबिज होस्नी मुबारक और गद्दाफी सरीखे ताकतवर तानाशाहों का इंद्रासन भी हिला दिया। इसके असर का ताजा सबूत ओसामा के घर पर किए गए हमले और उसकी हत्या की सचित्र खबरें फेसबुक पर फटाफट दिखाना है, जिसने प्रिंट-टीवी के अनुभवी व खुर्राट मुगलों को एक और पटखनी दे दी है।
न्यूयॉर्क टाइ स के अनुसार ओसामा की मौत की पुष्टि होते ही सभी बड़े अमेरिकी अखबारों और टीवी चैनलों को सरकारी ब्रीफिंग दे दी गई थी। पर उन सभी ने राष्ट्रपति ओबामा द्वारा खबर के औपचारिक (राष्ट्र के नाम संदेश के तहत) प्रसारण के बाद ही इसे देने के सरकारी अनुरोध का मान रखा। सोशल मीडिया निकला बेलगाम कल्कि अवतार। सिर्फ कयास के आधार पर रात 10:45 पर एबटाबाद के एक व्यक्ति ने अमेरिकी हमले और ओसामा के मारे जाने की खबर फेसबुक पर डाल दी। ओबामा द्वारा विधिवत घोषणा से दो घंटे पहले ही यह खबर दुनिया
भर में पहुंच चुकी थी और करोड़ों मोबाइल घनघनाने लगे थे। ट्विटर पर भी यह टीवी के लाइव प्रसारण से 20 मिनट पहले आ चुकी थी। खबर जगत को नौसिखिये और अ सर सीमित मानसिक क्षितिज वाले स्वयंभू संवाददाताओं की बढ़ती क्षमता और संगीन जटिल मामलों की सनसनीखेज और गैरजि मेदाराना रिपोर्टिंग से सावधान रहने की भी जरूरत है। मल्टीमीडिया लोकतंत्र की रक्षा के लिए तलवार जरूर है, पर अनुभवहीन मूर्खों या चतुर तानाशाहों और गलत सूचनाएं देने के खेल में माहिर आतंकी धड़ों के हाथों में यह बंदर के हाथ का उस्तरा भी
बन सकता है। मल्टीमीडिया का विकास इतनी तेजी से हुआ है कि अब तक साइबर कानूनों के विशेषज्ञ भी सोशल मीडिया की वे स्वस्थ सीमाएं और नियम नहीं तय कर सके हैं, जो पारंपरिक मीडिया को लक्ष्मण रेखा
के भीतर रखते हैं। पु ता सबूत के बिना, अदालती कार्यवाही पूरी होने से पहले कई बार किसी इज्जतदार व्यक्ति का पक्ष सुने बिना ही उसको नया मीडिया अभियु त करार दे देता है। हर किसी को लोकतंत्र में सुने जाने का हक है, जरूर है, पर दूसरे के इस हक का छिछोरेपन से किया गया उल्लंघन उनको अपूरणीय क्षति भी पहुंचा सकता है। इसका शर्मनाक उदाहरण हमने अभी अन्ना के साथियों के बारे में अचानक अनजान स्रोतों से जारी कर दिए गए उन असत्यापित टेपों के असर में देखा है, जिनको बहस का ऐसा मुद्दा बना दिया गया कि आंदोलन का असली
मुद्दा पीछे रह गया। साबुन के विज्ञापन झूठ कहते हैं। दाग अच्छे नहीं होते। बेबुनियाद दाग तो कभी नहीं।
sabhar_dainik bhaskar

Wednesday, May 11, 2011

एक में से पांच युवतियां निकली और बन गया गूगल

यूं आप ढूंढने जाओगे कि गूगल के बिना कोई इंटरनेट सर्फिंग कर ले तो आप शायद ही कोई मिले। वैसे भी अब गूगल को लोग गूगल गुरू कहने लगे हैं। फिर भी मैं आज गूगल गुरू को देखने की सिफारिश आपसे कर रहा हूं। क्योंकि जब हम गूगल डॉट को डॉट इन पर जाएंगे तो गूगल रोज की तरह दिखाई नहीं देता। हमेशा जबरदस्त प्रयोग करने वाला गूगल आज खास लेकर आया है। जिस अंदाज में गूगल ने महिलाओं के कैरीकेचर द्वारा नृत्य करवाकर गूगल लिखवाया है वह अदुभत है। गूगल लिखने के लिए अंग्रेजी के जी.ओ.ओ.एल.ई. वर्ड का प्रयोग किया जाता है। इनमें से सबसे पहले बनता है ई। ई बनाने के लिए जिस कैरीकेचर का प्रयोग किया है वह शुरू में अफगानिस्तान की महिला की तरह लगता है। यह महिला मिस्त्र की तरह नृत्य करती है। इसके बाद इसी महिला में से एक साया निकलता है और एक सुंदर मूर्ति के रूप में खड़ा हो जाता है और बन गया एल.। इसी मूर्ति में से एक और साया निकलता है जो योग करती हुई महिला के रूप में जी. बन जाता है। जी. से निकलकर एक सुंदर से महिला हवा में गोता लगाते हुए दो ओ. बनाती है और हवा में ही अटक जाती है। इसी महिला में से एक और महिला निकलती है जो गूगल का जी. बनाती है। और ऐसे पूरा होता है आज गूगल।

Sunday, May 08, 2011

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे कलाम के हाथो ‘भोजपुरी सिनेमा के पचास साल किताब’ का विमोचन

नई दिल्ली, 'भोजपुरी सिनेमा का पचास साल : २५ चर्चित फिल्में' लेखक कुलदीप श्रीवास्तव की पुस्तक का विमोचन पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने हिंदी भवन के सभागार में किया. इस अवसर पर कार्टून वाटच के त्रिंबक शर्मा और हरिभूमि समाचार के संपादक हिमांसु द्विवेदी भी मौजूद थे. यह पुस्तक भोजपुरी सिनेमा के पचास साल के सफ़रनामा परप्रकाश डालती है. कुलदीप श्रीवास्तव मूलत: बिहार सिवान के रहने वाले है, जो पिछले कई सालो से भोजपुरी फिल्मो पर लिखते आ रहे है. इसमें १९३१-३२ में कुछ हिंदी फिल्मो में भोजपुरी गानों की शुरुआत, १९४८ में दीलिप कुमार की 'नदिया के पार' में ८ गाने थे और सभी गाने भोजपुरी भाषा में थी, जिसकी जिक्र इस पुस्तक में मिलती है, साथ ही १९६१ में जब पहिली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो', तथा लागी नहीं छूटे राम, धरती मइया, बिदेसिया, बालम परदेसिया, दगाबाज़ बलमा सहित कुल २५ चर्चित फिल्मो के बारे में जिसने भोजपुरी सिनेमा के ५० साल के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है. इस किताब ने भोजपुरी सिनेमा के असली रूप को समेटा है, और अब तक चली आ रही यह धारणा कि भोजपुरी फिल्मों में केवल अश्लीलता ही रहती है को झूठा साबित करती है. लेखक ने अपनी पुस्तक में बताया है कि जब भोजपुरी फिल्मे बनने लगी, शुरू से ही सभी फिल्मों में समाज के लिए कुछ न कुछ सन्देश होती थी.

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