आम चुनाव नजदीक हैं। अगर सबकुछ ठीक रहा तो अप्रैल में आम चुनाव होंगे. आतंकवाद के खिलाफ राजनीतिक दल बड़ा प्रचार अभियान चलाएंगे. उम्मीद है कि इस बार यह प्रचार अभियान एक से डेढ़ हजार करोड़ के बीच होगा. इसका सीधा फायदा विज्ञापनों के रूप में मीडिया और विज्ञापन एजंसियों को मिलेगा.
आतंकवाद और मंदी का आपस में कोई संबंध हो सकता है? चलिए इसमें एक कड़ी और जोड़ देते हैं-राजनीति. अब कोई संबंध बनता है? अभी भी पूरा संबंध नहीं बना है. इसलिए इसमें मीडिया को भी शामिल कर लेते हैं. अब पूरी कड़ी बन जाती है- मंदी के इस दौर में जब चारों ओर संकट के बादल छाये हैं ऐसे में भारत में आतंकवादी हमलों ने मीडिया और विज्ञापन एजंसियों को अपना व्यापार बनाये रखने का मौका दे दिया है. यह सब इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि राजनीतिक दल चुनाव मैदान में थे.
26 तारीख को मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ. 27 तारीख को अफरा-तफरी का माहौल था. 28 नवंबर को भाजपा ने अखबारों में एक बड़ा सा विज्ञापन प्रकाशित करवाया पहले पेज पर जो कि आतंकवाद के खिलाफ था. यह विज्ञापन हिन्दी अंग्रेजी के सभी अखबारों और संस्करणों में था. विज्ञापन में कहा गया था कि "आतंक की चौतरफा मार, लगातार. सरकार कमजोर और लाचार." इसके बाद भाजपा को वोट देने की अपील की गयी थी. जवाब में 29 नवंबर को कांग्रेस ने एक विज्ञापन निकाला जिसमें कांग्रेस की ओर से आतंकवाद से जूझते सुरक्षाकर्मियों को नमन और श्रद्धांजिल दी गयी थी. इस विज्ञापन में कांधार काण्ड का जिक्र सबसे ऊपर किया गया था. साथ में कांग्रेस की ओर अपील की गयी थी कि यह राष्ट्र का प्रशन है, राजनीति का खेल नहीं".
चुनाव आयोग की सख्ती के कारण पिछले कुछ सालों से आम चुनाव के दौरान प्रचार का तरीका पूरी तरह से बदल गया है। दिल्ली वैसे भी महानगर है और दीवारों आदि पर पोस्टर चिपकाने की पूरी तरह से पाबंदी है लेकिन इस बार भोपाल व् पूरे मध्य प्रदेश में भी इस मामले में सख्ती दिखी . सार्वजनिक स्थानों पर भी उम्मीदवार पोस्टर नहीं लगा सकते. इसका असर यह हुआ है कि राजनीतिक दलों ने कारपोरेट कंपनियों की तर्ज पर विज्ञापन एजंसियां किराये पर लेने लगी है. ऐसे प्रचार अभियान में विज्ञापन एजंसियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. मसल कांग्रेस के लिए इस विधानसभा चुनाव में दिल्ली की 20 साल पुरानी विज्ञापन कंपनी क्रेयन्स एडवर्टाईसिंग कंपनी ने प्रचार अभियान संभाला तो भाजपा की ओर से हाईव कम्युनिकेशन्स इंडिया प्रा.लि. ने. हालांकि दोनों ही विज्ञापन कंपनियां यह नहीं बताती कि उन्हें इस काम के लिए कितना बजट आवंटित किया गया था लेकिन ऐसा अनुमान है कि इन विधानसभा चुनावों में विज्ञापन अभियान के लिए एजंसियों के माध्यम दोनों पार्टियों की ओर से कोई 150 करोड़ रूपये खर्च किये गये.
ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है मई में संभावित आम चुनाव तक यह बजट बढ़कर 1,000 करोड़ रूपये हो जाएगा. यह बजट और बढ़कर 1500 करोड़ रूपये तक जा सकता है. मंदी के इस दौर में जब विज्ञापन एजंसियों को कंपनियों और कारपोरेट घरानों की ओर बिजनेस की कमी झेलनी पड़ रही है, ऐसे में राजनीतिक दलों द्वारा विज्ञापन पर इतनी भारी भरकम रकम खर्च करने से एजंसियों को व्यवसाय की नयी संभावना दिख रही है. 2007 में देश में कुल विज्ञापन बाजार 19,800 करोड़ रूपये का था. ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि यह बाजार पिछले साल की ही तरह 20 से 22 प्रतिशत की दर से विस्तार करेगा. लेकिन ताजा आंकड़े बताते हैं कि विज्ञापन बाजार में इस साल अब तक केवल 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है. अब जबकि मंदी अपना फन फैला रहा है तब यह बढ़ोत्तरी और कम हो जाने की आशंका है. ऐसे में राजनीतिक दलों द्वारा विज्ञापनों पर भारी खर्च करने की संभावना देखते हुए एजंसियों की पौ-बारह है.
कांग्रेस के लिए विज्ञापन करनेवाले क्रेयन्स एडवर्टाईजिंग के अध्यक्ष रंजन बड़गोत्रा कहते हैं "अब रोज के हिसाब से बदलाव दिखाई दे रहे हैं. इन विधानसभा चुनावों के दौरान मुंबई हमलों के कारण पूरा परिदृश्य बदल गया था. फिर भी हमने उस हमले की निंदा करने तक अपने आप को सीमित रखा. हम उस हमले से कोई फायदा नहीं उठाना चाहते थे." इसके विपरीत भाजपा के लिए काम कर रही विज्ञापन एजंसी ने आखिरी दिन अपनी पूरी रणनीति बदलते हुए मुंबई हमलों को आधार बनाकर विज्ञापन जारी किये. दिल्ली में आतंकवाद को भाजपा बड़े स्तर पर भुनाना चाहती थी इसका खुलासा विजय कुमार मल्होत्रा ने भी किया था. हमले के अगले दिन 27 नवंबर को मीडियावालों से बात करते हुए मल्होत्रा ने कहा था कि "बाटला हाउस की घटनाओं के बाद लोगों में बहुत गुस्सा है. सरकार आतंकवाद को महिमाण्डित कर रही है." मुंबई पर हुए आतंकी हमले को मुद्दा बनाने का संकेत देते हुए मल्होत्रा ने कहा था "यह देश पर हमला है और दिल्ली के नागरिकों को इस आतंक के खिलाफ अपना मतदान करना होगा. सरकार को भी इस बात का अहसास हो जाना चाहिए कि जनता क्या सोचती है."8 दिसंबर को चुनाव नतीजा आने के बाद शीला दीक्षित ने पत्रकारों से कहा कि "विकास मुद्दा बना, आतंकवाद नहीं" तो साफ हो गया कि भाजपा के उस प्रहार से कांग्रेस के अंदर भी बेचैनी थी लेकिन चुनाव नतीजों ने उस बेचौनी से कांग्रेस और शीला दीक्षित दोनों को उबार लिया.
चुनाव आयोग का दिशा-निर्देश है कि लोकसभा का उम्मीदवार 25 लाख और विधानसभा का उम्मीदवार 10 लाख रूपये खर्च कर सकता है. लेकिन सब जानते हैं कि वास्तविक खर्च इससे कई गुना ज्यादा होता है. इन खर्चों में पार्टी के केन्द्रीय कार्यालय और प्रदेश कार्यालय द्वारा खर्च किये गये खर्चे शामिल नहीं होते. पिछले आमचुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा लगभग 500 करो़ड़ रूपये खर्च किये गये थे जबकि इस साल पांच विधानसभा चुनावों में ही कोई 150 करोड़ रूपये विज्ञापन पर खर्च कर दिये गये. जिसमें अखबार के अलावा डिजिटल मीडिया और एसएमएस, आउटडोर और टीवी पर दिये जानेवाले विज्ञापन शामिल हैं. मसलन दिल्ली में विधानसभा चुनावों के दौरान सभी आउटडोर स्पेश भाजपा और कांग्रेस ने बुक करा लिये थे. पहले जो राजनीतिक दल जबरिया आउडोर होर्डिंग्स पर अपने बैनर टांग देते थे इस बार उन्होंने बाकायदा कान्ट्रेक्ट करके उन स्थानों को खरीद लिया था और राज्य के लोगों से अपनी पार्टी के लिए वोट मांगा.
विज्ञापन एजंसियों के फायदे में रहने का सीधा मतलब है मीडिया उद्योग का फायदे में रहना. अब मीडिया हाउस भले ही आतंकवाद के मुद्दे पर राजनीतिक दलों को कितनी भी गाली दे लें लेकिन वे भी जानते हैं कि आतंकवाद के विरोध में जो प्रचार अभियान राजनीतिक दलों की ओर से चलेगा वह सारा पैसा मीडिया घरानों के पास ही आनेवाला है, क्योंकि एक विज्ञापन एजंसी तो महज १५ प्रतिशत पैसा ही अपने पास रखती है बाकी पैसा मीडिया हाउस के पास चला जाता है. आतंकवाद में मीडिया हाउस को अपने टिके रहने की संभावना नजर आ रही है इसीलिए हर चैनल आतंकवाद पर विशेष प्रसारण कर रहा है और ऐसे विशेष प्रसारणों को मिलनेवाले संभावित विज्ञापनों के लिए भरपूर मार्केटिंग भी कर रहा है. देश पर बढ़ता आतंकवाद मीडिया के लिए इस मंदी में उसी तरह संजीवनी बन रहा है जैसे किसी का संकट किसी के लिए संभावना बन जाती है.
ये आलेख विस्फोट से लिया गया है ताकि सुधि पाठक मीडिया के बारे में जान सके।
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