Wednesday, November 26, 2008

यदि साहित्य हावी न होता तो सुविख्यात पत्रकार होते प्रेमचंद

आज मन में विचार आया की अपने फेवरिट मुंशी प्रेमचंद को पड़ा जाए और इसी इरादे से उनकी किताबो में सर खपाने लगा। नेट पर भी तलाश किया और दिन भर की मशक्कत के बाद कुछ विचार आए जिन्हें वेबदुनिया के सहयोग से यहाँ लिख रहा हूँ.
प्रेमचंद ने अँग्रेजी सत्ता का विरोध तो किया ही भारत की उस सत्ता के विरुद्ध भी अपनी कलम चलाई जो आम जनता का शोषण करते हुए अँग्रेजी सत्ता का साथ दे रही थी। स्वराज्य कैसा होगा, इसकी व्याख्‍या भी वे विचारवान पत्रकार के रूप में करते रहे। उनका कहना था कि स्वराज्य पद और अधिकार की प्राप्ति कराने के लिए नहीं, गरीब किसानों और मजदूरों के हितार्थ अनुकूल स्थितियों की सृष्टि करने के लिए होगा। स्वराज्य में दीनों-दलितों के उद्धार को वरीयता दी जाएगी। उच्च वर्ग के हितों के लिए देश की सामान्य जनता के हितों का बलिदान नहीं होने पाएगा।प्रेमचंद की दृष्टि मानवीय संवेदना से पुष्ट थी, एक साहसिक प‍त्रकारिता का परिचय देते हुए उन्होंने जातिवाद, क्षेत्रवाद, विचारवाद, व्यक्तिवाद आदि का भी विरोध किया। उस समय ऐसे वाद प्रबल थे, इनके समर्थक शक्ति संपन्न थे, फिर भी प्रेमचंद झुके नहीं। अपनी पत्रकारिता को रचना और विचार की पत्रकारिता, राष्ट्रीय आंदोलन की पत्रकारिता, दीनों-दलितों के समर्थन की पत्रकारिता बनाए रहे।प्रेमचंद की पत्रकारिता में पूर्वाग्रह को कोई स्थान नहीं था। उन्होंने अपने उन विरोधी व्यक्तियों को भी 'हंस' में बराबर स्थान दिया, जिनके विचार उनके विचारों से मेल नहीं खाते थे। पत्रकारिता का यह गुण विरले हुआ करता है। इस दृष्टि से भी प्रेमचंद विरल पत्रकार के रूप में याद किए जाएँगे। हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए भी प्रेमचंद अपने संपादकीयों में अपनी भावानाएँ व्यक्त करते रहे हैं। उनका विचार था कि 'पराधीन भारत में न हिंदू की ख़ैर है, न मुसलमान की।' हंस में जो संपादकीय टिप्पणियाँ छपा करती थीं, उनका शीर्षक 'हंसवाणी' हुआ करता था। इन 'हंसवाणियों' में प्रेमचंद की निर्भीकता, स्पष्टोक्ति, राष्ट्रीय ऊर्जस्विता, राष्ट्रीय ओजस्विता की अभिव्यक्ति हुआ करती थी। 'हंस' का प्रकाशन सन 1930 में प्रारंभ हुआ था। सिर्फ पाँच वर्ष बीतने पर वह अखिल भारतीय पत्र के रूप में स्थापित हुआ तो इसकी पृष्ठभूमि में हंसवाणियाँ ही थीं, जिन्हें पढ़ने के लिए लोग लालायित रहा करते थे। वस्तुत: 'हंस' तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन का मुखपत्र जैसा बन गया था, स्वयं प्रेमचंद आंदोलन के शक्ति स्रोत जैसे मान्य हो रहे थे। एक पत्रकार के लिए जिन अपेक्षाओं को मूर्तरूप देना आवश्यक होता है, प्रेमचंद वैसे ही पत्रकार थे, उनकी हंसवाणियों में आह्वान, आलोचना, सुझाव, विरोध, समर्थन आदि का समावेश परिवेश और परिस्थिति की आवश्यकतानुसार होता था। बहुजन हिताय में जो कर्म होता, वे उसके प्रशंसक बन जाते, परंतु इसके विपरीत वाली कार्यप‍द्धति की आलोचना करने से पीछे नहीं हटते थे। वह गाँधी के भक्त थे, परंतु अंधभक्त नहीं थे। मार्च 1931 में कांग्रेस का ‍अधिवेशन हुआ था। उसकी समाप्ति पर उन्होंने 'हंस' में जो विचार व्यक्त किए थे, उसका एक अंश इस प्रकार है - 'अब कांग्रेस का ध्येय कांग्रेस के सामने है। वह गरीबों की संस्था है। गरीबों के हितों की रक्षा उसका महान कर्तव्य है, उसके विधान में मजदूरों, किसानों और गरीबों के लिए वही स्थान है जो अन्य लोगों के लिए, वर्ग, जाति, वर्ण आदि के भेदों को उसने एकदम हटा दिया है। हम कांग्रेस के इस प्रस्ताव के लिए बधाई देते हैं, स्वराज्य की इस व्याख्या को लाखों की संख्‍या में बाँटना चाहिए, ऐसा कोई घर न होना चाहिए, जिसमें इसकी एक प्रति न पहुँचे। अब जनता को इस विषय पर कुछ संदेह न रहेगा कि वह किन स्वत्वों के लिए लड़ रही है।' यह टिप्पणी प्रेमचंद की जागरुक और सुलझी हुई पत्रकारिता का द्योतक है, इसमें समर्थन है, सुझाव भी है।यदि प्रेमचंद कथा साहित्य के सृजन को अनवरत स‍मर्पित रहे तो पत्रकारिता के प्रति भी उनका समर्पण अपेक्षाकृत कम नहीं माना जाएगा। 'हंस' निकालते रहने के लिए उन्हें अर्थाभाव के अलावा सरकारी दमन को भी झेलना पड़ा था। एक समय तो सरकारी दमन के विरुद्ध 'हंस' में टिप्पणी लिखने के कारण उनसे जमानत माँग ली गई थी। उन दिनों प्रेस की स्वतंत्रता आज जैसी नहीं थी। यदि शासन के विरुद्ध कुछ लिखा जाता था, तो प्रेस को जमानत के तौर पर नकद धनराशि अदा करनी होती थी। न देने पर पत्र को बंद कर देना पड़ता था। पत्रकारिता के प्रति वह किस सीमा तक लगनशील थे, इसका अनुमान उन सौ से अधिक टिप्पणियों से लगाया जा सकता है, जो उन्होंने 'हंस' की संपादन अवधि में लिखकर प्रकाशित की थीं।उनका विचार था कि 'पराधीन भारत में न हिंदू की ख़ैर है, न मुसलमान की।' हंस में जो संपादकीय टिप्पणियाँ छपा करती थीं, उनका शीर्षक 'हंसवाणी' हुआ करता था। इन 'हंसवाणियों' में प्रेमचंद की निर्भीकता, स्पष्टोक्ति, राष्ट्रीय ऊर्जस्विता...... ये टिप्पणियाँ यह भी प्रदर्शित करती हैं कि वह पत्रकार के रूप में कतने सजग थे। उन्होंने धर्म, संस्कृति, शिक्षा, राष्ट्रभाषा, समाज, महिला, स्वतंत्रता संग्राम, विश्वयु्द्ध, हिंदू-मुस्लिम एकता एवं छूत-अछूत, किसान-मजदूर, स्थानीय शासन, साहित्य, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्या आदि अनेकानेक विषयों पर अपने नितांत मौलिक विचार रखे। वह अपने समकालीन किसी भी महान व्यक्ति के विचारों के अनुयायी नहीं रहे, सच तो यह है कि किसी दूरदर्शी, निष्पक्ष और प्रबुद्ध पत्रकार से ऐसी ही आशा की जाती है। निष्कर्षत: प्रेमचंद की पत्रकारिता किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यदि उनके ऊपर उनका साहित्य हावी न होता तो वह एक सुविख्यात पत्रकार के रूप में भी युगों-युगों तक याद किए जाते।

1 comment:

Anonymous said...

i am happ to see your interest for hindi language. u can learn sanskrit by C_DAC software too


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