लाजपत आहूजा
प्रेस कानून बदलने का वक्त करीब आ रहा है । भोपाल में पिछले दिनों हुई एक संगोष्ठी में यह बिन्दु पूरी गंभीरता से उठा था कि आजादी के छह दशक के बाद स्वतंत्र भारत में समाचार पत्र - पत्रिकाओं का नियमन अब भी जिस अधिनियम से हो रहा है, वह प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम वर्ष १९६७ का है । अंग्रेजकाल के अधिनियम की धाराओं में भी सामान्य परिवर्तन के अलावा कुछ खास नहीं बदला गया है । पिछले २७ वर्षो में तो इसमें नाममात्र का भी परिवर्तन नहीं हुआ है । अब यह सुयोग बना है कि राज्यों के सूचना मंत्रियों के पिछले माह दिल्ली में हुए सम्मेलन में नए प्रेस अधिनियम के प्रारूप पर विचार हुआ है । इसे नए नाम से और नए सिरे से प्रारूप तैयार करने की वर्षो पुरानी अपेक्षा पूरी होने की दशा में देरी से ही सही, ठोस कदम उठा है । प्रस्तावित अधिनियम के प्रारूप की कमियां विचार-मंथन से दूर की जा सकती है । हारे देश में किसी भी समाचार-पत्र या अन्य नियतकालिक पत्र-पत्रिका के प्रकाशन के पूर्व की औपचारिकताएं इस अखिल भारतीय अधिनियम के अन्तर्गत ही आती हैं । शीर्षक आवंटन से लेकर उसके रजिस्ट्रेशन और नियमितता संबंधी प्रक्रिया का ब्यौरा इसमें है । पूरे देश के लिए समाचार-पत्रों का एक ही पंजीयक होता है । मूल रूप से अंग्रेजों के बनाए हुए इस कानून के अंतर्गत पंजीयक का प्रचलित नाम ÷आरएनआई' है । १८६७ में प्रेस की जानकारी रखने के लिए सर्वप्रथम यह कानून बनाया गया था । बाद में प्रेस को दबाने के लिए वायसराय लायटन के समय १८७८ का बदनाम वर्नाकुलर प्रेस एक्ट बना । भाषाई समाचार-पत्रों को दबाने के लिए लाया गया यह कानून इंग्लैंड में सत्ता परिवर्तन के बाद १८८१ में रद्द किया गया और १८६७ वाले कानून को ही जारी रखा गया ।
स्वतंत्र भारत में समाचार पत्रों के नियमन में भी यह कानून सफल रहा, इसमें संदेह के कई कारण हैं । समाचार-पत्रों के प्रकाशन की अगंभीर बढ़त, अपात्रों का प्रकाशन कर्म और ऊटपटांग शीर्षकों के लिए बहुत हद तक मौजूदा कानून को ही जिम्मेदार माना जाता है । इसलिए इस अधिनियम का फिर से प्रारूप तैयार करने की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही थी । वर्ष १९५२ में बने प्रथम प्रेस आयोग ने इस अधिनियम के बारे में विचार किया था । आयोग की कुछ सिफारिशों को लागू भी किया गया । समाचार पत्रों के लिए रजिस्ट्रार की नियुक्ति इन सिफारिशों में से एक थी । १९७८ में बने द्वितीय प्रेस आयोग ने भी कई सुझाव दिए । इन्हें अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका । इनमें से कुछ परिभाषाएं आदि अब नए प्रारूप में ली गई हैं । हालांकि उनमें नई व्याख्याएं भी हैं । नए कानून को द प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ पब्लिकेशंस एक्ट का नाम दिया जाएगा । बुक्स (किताबों) को इस अधिनियम की परिधि से बाहर करना प्रस्तावित किया गया है । सभी नियतकालिकों को प्रकाशनों (पब्लिकेशंस) में समाहित करते हुए समाचार पत्र, पत्रिका, जर्नल, न्यूज लेटर को अलग-अलग परिभाषित किया गया है । शीर्षक सत्यापन का नया प्रावधान इसमें शामिल किया गया है । इसके तहत अवयस्क, संज्ञेय अपराधों में सजायाफ्ता और जो भारत का नागरिक नहीं है, वे कोई प्रकाशन नहीं कर पाएंगे । प्रसार संख्या के सत्यापन के लिए भी वैधानिक प्रावधान किए गए हैं ।
प्रस्तावित नए प्रेस कानून में संपादक की परिभाषा में शैक्षणिक योग्यता को जोड़ा गया है । वर्तमान अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था । यह एक अच्छा प्रावधान है, लेकिन इसे प्रस्तावित संशोधनों में स्पष्ट नहीं किया गया है । शीर्षकों के सत्यापन नाम से नया प्रावधान किया गया है । इस धारा में शीर्षकों का सोद्देश्य और अर्थपूर्ण होना भी जोड़ा जाना चाहिए । प्रस्तावित अधिनियम के उल्लंघन पर आर्थिक दंड बढ़ाया गया है।
आशा की जा सकती है कि नए प्रेस कानून की सूरत और सीरत प्रेस और देश के लिए शुभ होगी । प्रेस संबंधी मौजूदा परिदृश्य के दृष्टिगत तीसरे प्रेस आयोग की स्थापना के लिए भी यह उपयुक्त समय है ।
(लेखक मध्यप्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में अतिरिक्त संचालक हैं)
sabhar दखल
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
Sunday, January 24, 2010
Friday, December 18, 2009
बालीवुड पर भारी जेम्स कैमरान का अवतार

कहानी-पेन्डोरा गृह जिसका एक किलो का पत्थर एक करोड़ रूपये में बिकता है। उसी पत्थर की खोज एक व्यापारी को पेन्डोरा गृह ले आती है। लेकिन पेन्डोरा रहने वाले जीव उनके लिए समस्या हैं। इस समस्या से पार पाने के लिए व्यापारी जान नमक एक विकलांग सैनिक को चुनता है और जान पेन्डोरा गृह के निवासियों में घुलने मिलने में कामयाब हो जाता है। जान का काम था की वह पेन्डोरा के निवासियों को ये बात बता दे की उन्हें पेन्डोरा के गाँव ख़ाली करना है। लेकिन जान को पेन्डोरा के सरदार की लड़की से प्यार हो जाता है। इस दौरान व्यापारी पेंडोरा पर हमला करने की तय्यारी कर लेता है इस बात की भनक सिम को लग जाती हैफ़िर शुरू होता है जबरदस्त रोमांच जो की फ़िल्म खत्म होने के बाद दर्शकों के सीने में चलायमान है। कुल मिलाकर एक अवतार की आंखों के माध्यम से प्राकृतिक और अप्राकृतिक चमत्कार के अंतहीन, लुभावनी संग्रह को पेश किया, गया है। सभी अलौकिक तरलता के साथ प्रदान की गई है। पेंडोरा अनगिनत पशु प्रजातियों में से एक है और हम अपने हाथों पर एक प्रामाणिक क्लासिक फिल रख सकते हैं। अवतार, कहानी और चरित्र के विकास में बाधा के रूप में इलाज कर रहे हैं, कथा ब्रश कि स्पष्ट किया जाना चाहिए की जेब को अगले असाधारण व्यापक सेट टुकड़ा के निर्माण के लिए रास्ता बनाने में कटौती। और फिर भी, उसकी खामियों के बावजूद, अवतार उन में से एक अत्यंत दुर्लभ मामलों में प्रतिनिधित्व करता है जो पदार्थ पर शैली की जीत - और एक भूस्खलन से. इस फ़िल्म में जिनको अभिनय दिखने का मौका दिया उन्होंने थोड़े समय में भी अपना कमल दिखा दिया। दिक्कत है तो केवल एक की फ़िल्म को बेहतर ढंग से समझने के लिए दो बार देखना पड़ेगी। भोपाल के रम्भा, संगम, और एक एनी सिनेमा ये फ़िल्म लगी और क्रिकेट मैच होने के बावजूद फ़िल्म को दर्शक मिले।
Monday, December 14, 2009
मजाक बन गई मप्र सरकार की राजेन्द्र माथुर फैलोशिप

प्रारंभिक दौर में गरिमा के साथ सुयोग्य पत्रकारों को दी गई यह फैलोशिप ताजा दौर में रेवडी की भांति चीन्ह-चीन्ह कर दी जा रही है। दुख तो यह है कि फैलोशिप देने वाले और पाने वाले के अलावा शायद ही कोई जान पाता हो कि मूर्धन्य पत्रकार स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर कोई राष्ट्रीय फैलोशिप भी दी जा रही है।
राजेन्द्र पाराशर
भोपाल। लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर के नाम पर मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रारंभ की गई फैलोशिप अब मजाक बनकर रह गई है. सौम्य और शालीन पत्रकारिता के प्रतीक स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर दी जाने वाली फैलोशिप वर्तमान दौर में निहित स्वार्थों की राजनीति के चलते अपने-अपनों को उपकृत करने का जरिया बन गई है. नईदुनिया और नवभारत टाइम्स जैसे सुप्रतिष्ठित अखबारों के संपादक रहे और पत्रकारों की संस्कारित पीढी तैयार करने वाले स्वर्गीय श्री माथुर ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके नाम का इस तरह मखौल उडाया जाएगा अथवा उनके नाम पर फैलोशिप स्थापित कर इस प्रकार उनकी छीछालेदर की जाएगी. प्रारंभिक दौर में गरिमा के साथ सुयोग्य पत्रकारों को दी गई यह फैलोशिप ताजा दौर में रेवडी की भांति चीन्ह-चीन्ह कर दी जा रही है. दुख तो यह है कि फैलोशिप देने वाले और पाने वाले के अलावा शायद ही कोई जान पाता हो कि मूर्धन्य पत्रकार स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर कोई राष्ट्रीय फैलोशिप भी दी जा रही है. वर्तमान में फैलोशिप के साथ योग्यता के मापदंड भी बदल गये हैं. प्रदेश में जब सरकार कांग्रेस की थी तो फैलाशिप पाने वाला अलग वर्ग हुआ करता था और भाजपा की सरकार आने के साथ योग्यता के मापदंडों में आरएसएस से जुडाव या उसके अनुमोदन की शर्त जुड गई है या जोड दी गई है. स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर जब इस फैलाशिप की शुरूआत हुइर्, तब सरकार की मंशा साफ थी, उसके मापदंड तय थे और योग्यता का भी पूरा-पूरा ख्याल रखा गया था.यहां तक की चयनकर्ता भी उतने ही तटस्थ रहे जिन्होंने हर बात पर फैलोशिप पाने वाले को परखा उसके बाद ही उसका चयन किया. यही वजह थी इस फैलोशिप की शुरूआत के समय जिन लोगों को यह दी गई वे योग्यता के आधार पर लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार थे. तब सरकार इस फैलोशिप की पूरी गरिमा भी बनाए हुए थी, साथ ही जिसे यह दी जाती थी उससे शर्तों के अनुसार पूरा कार्य भी कराया जाता था. इसकी गरिमा कुछ ऐसी बन गयी थी कि भव्य समारोह में जब उस लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार को यह फैलाशिप दी जाती थी तब उसे भी यह महसूस होता था कि पत्रकारिता के इस कठिनाईयों भरे सफर में उसने ऐसा कार्य किया है, जिसका प्रतिफल वह आज पा रहा है. इस प्रतिफल के रूप में उसे सरकार नवाज रही है और पूरा देश यह जान रहा है कि स्वर्गीय माथुर साहब के नाम को जीवित रखने के लिए कुछ कार्य हुआ है.आज जब हम वर्तमान में इस फैलाशिप के बारे में जानने की कोशिश करते हैं, तो ऐसा महसूस होता है कि वह केवल एक ऐसा हवा को झोंका था जो आया और अपने साथ सब कुछ उडा कर ले गया. यह सब केवल चार वर्षों तक ही ठीक-ठीक चला. याने वर्ष १९९६ से शुरू की गई यह फैलोशिप वर्ष २००० के बाद बंद सी हो गई थी. सबसे पहले इसे पाने वाले लब्ध प्रतिष्ठि पत्रकार थे श्री राजकिशोर, इसके बाद मध्यप्रदेश के श्री शिवअनुराग पटेरिया जिन्हें वर्ष १९९७ की फैलाशिप दी गई. इसके बाद १९९८ की फैलाशिप श्री हरीश पाठक को और वर्ष २००० में यह श्री उर्मिलेश को दी गई. वर्ष १९९९ में यह फैलोशिप किसी को नहीं दी. इसके बाद निरंतर तीन वर्षो याने वर्ष २००१ से २००३ तक ये फैलोशिप किसी को ही नहीं दी गई. राज्य में जब वर्ष २००३ में सत्ता परिवर्तन हुआ और बंद हुई इस फैलोशिप की ओर नजर गई तो सरकार ने इसकी शुरूआत की, पर पता ही नही चला की कब इसकी शुरूआत हो गई. इतना जरूर सुनने में आया कि वर्ष २००४ से २००७ तक लगातार यह फैलोशिप दी गई, मगर कब, किसने और किसे दे दी यह जानकारी किसी को नहीं. इसे हम शासकीय उपेक्षा या सरकार की बेरूखी ही कह सकते है, जो बंद फैलोशिप को शुरू तो की परन्तु इस तरह की किसी को इसकी जानकारी ही न हो. याने जिस प्रकार सरकार प्रारंभिक काल में इसके लिए प्रचार प्रसार करती थी, गरिमापूर्ण आयोजन होता था वह इसलिए कि और भी इस फैलोशिप के लिए प्रेरित हों, ताकि स्वर्गीय माथुर के नाम पर शुरू किया गया यह कार्य अनवरत उसी निष्ठा के साथ चलता रहे जिस निष्ठा के साथ श्री माथुर साहब पत्रकारिता करते रहे.वर्तमान में इस फैलोशिप के साथ सरकार की मंशा तो बदली साथ ही इस पर एक विचारधारा वाले समूह का कब्जा सा हो गया है. उन्हीं लोगों को इसके जरिए उपकृत किया जा रहा है जो उस विचारधारा से या उन विचारधारा वालों से जुडे हैं. फैलोशिप के नाम पर पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थान तो दूर की बात है, परिचय के भी मोहताज लोगों को यह फैलोशिप मिल रही है. इसका उदाहरण है कि वर्ष २००४ से २००७ तक के लिए जिन लोगों को यह फैलाशिप उपकृत करने के लिए दी गई वे लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकारों की श्रेणी में तो नजर नहीं आते हैं. वर्ष २००४ के लिए यह फैलोशिप कु. मोना बिल्लोरे, वर्ष २००५ के लिए श्री अंजनि कुमार झा, २००६ के लिए श्री सुरेश शर्मा और २००७ के लिए श्याम यादव को दी गई. पत्रकारिता के क्षेत्र में मोना बिल्लोरे गुमनाम नाम के समान है. वे किसी वक्त जब भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र नवभारत में श्री विजयदत्त श्रीधर सम्पादक हुआ करते थे तब इस समाचार पत्र में कार्यरत थीं, इसके बाद उनका कार्यकाल सप्रे संग्रहालय और वर्तमान में वे सरकार के उपक्रम वन्या प्रकाशन में कार्यरत हैं. इन्हें किस योग्यता पर खरा पाया गया चयनकर्ता ही बता सकते हैं. वहीं श्री अंजनि झा और श्री सुरेश शर्मा एक विचारधारा से जुडे पत्रकारों के रूप में जाने जाते हैं. श्री झा जो कि बिहार से भोपाल आए, लेकिन राजधानी भोपाल में ही पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं कर पाए कि उन्हें पत्रकार के रूप में ख्याती मिली हो, लेकिन वे संघ की विचारधारा वाले संवाद केन्द्र से जुडे होने का फायदा जरूर उठा गए. बिहार से भोपाल आकर अंतरराष्ट्रीय विषयों के विशेषज्ञ माने जाने वाले लब्धप्रतिष्ठित स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर के नाम स्थापित फैलोशिप के वे कैसे हकदार बन गए यह तो चयनकर्ता ही जाने. इसी तरह संघ की विचारधारा वाले और 'अपनी सरकार÷ व 'सरकार के वे÷ कहने वाले श्री सुरेश शर्मा से तो सभी परिचित हैं. दैनिक स्वदेश से व्यापार प्रतिनिधि के रूप में पत्रकारिता का सफर शुरू कर उन्होंने खुद का एक साप्ताहिक अखबार 'शिखर मेल÷ निकाला. इस अखबार के वे मालिक, सम्पादक रहे. इनके बारे में बताते हैं कि अवसर पाते ही अखबार के नाम सरकार से जमीन आवंटित कराई और समय आते ही इसे किसी बिल्डर को अखबार सहित बेंच दी. श्री शर्मा का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वे हमारी सरकार के नाम पर ओजपूर्ण बातें कर वह सबकुछ पा जाना चाहते हैं जो कांग्रेस शासनकाल में वे नहीं पा सके थे. उन्होंने भी अवसर पाते इस फैलोशिप के लिए दरवाजा खटखटा दिया और फैलोशिप पा गए. इसी तरह उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद के रहने वाले श्यामलाल यादव को वर्ष २००८ के लिए इस फैलोशिप से नवाजा गया. दुर्भाग्य की बात है कि किसी सरल, सौम्य और किसी गुट में शामिल न रहे स्वर्गीय श्री माथुर के नाम पर स्थापित फैलाशिप आज कैसे और किन पत्रकारों को मिल रही है, यह सब देख और सुन दुख होता है. उन लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकारों को भी इसी बात का मलाल है जिन्हें पूर्व में इस फैलोशिप से नवाजा गया. आज वे जब मध्यप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित इस फैलोशिप की दुर्गति होते या शासनतंत्र द्वारा निहितस्वार्थों के चलते करते देखते हैं तो कुछ समय के लिए सहम जाते हैं, और कुछ कह भी नहीं पाते हैं. आज जिस तरह यह फैलोशिप दी जा रही है उसके बारे में न तो कोई यह जान पाया है कि कब यह वितरित की गई, कब चयनकर्ताओं ने इनका चयन कर लिया और वे किस विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं. इन शोधार्थियों द्वारा फैलोशिप के तय मापदंडों को पूरा भी किया जा रहा है या नहीं ।
राजेन्द्र पराशर वर्तमान में लोकमत समाचार में कार्यरत हैं।
इंदौर प्रेस क्लब पत्रकारिता कम राजनीती का अड्डा ज्यादा

भोपाल। इंदौर प्रेस क्लब की पानी गरिमा कभी हुआ करती थी, लेकिन बीती कुछ वर्षों में ये अर्श से फर्श पर आ गई है। यहाँ पत्रकारिता सीखने अब कोई नही आता। हाँ पहले जरुर वे पत्रकार जो करियर की शुरुआत करते थे, यहाँ आया करते थे की शायद कोई वरिष्ठ पत्रकार मिल जाए जो एकाध स्टोरी बता देन या फ़िर कोई स्टोरी आईडिया बता दे। लेकिन अब ऐसानही होता क्योंकि प्रेस क्लब के सदस्य इन दिनों चुनाव में व्यस्त हैं। पुरी पोलखोल रहे हैं इंदौर के अग्नि ब्लास्ट के सम्पादक मुकेश ठाकुर।
पड़ें-प्रेस क्लब में भटकती पत्रकारिता की आत्मा
Thursday, December 10, 2009
अब सबसे पहले आम आदमी मीडिया के दरवाजे खटखटाता है

संजय द्विवेदी
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
Saturday, December 05, 2009
युद्ध पत्रकारिता पर एक बेहतरीन पुस्तक

sabhar-dakhal.net
Friday, December 04, 2009
गैस ट्रेजिडी पर भास्कर की अदभुत श्रधान्जली

भोपाल। दुनिया में कई काम अदभुत होते हैं कुछ नेक नियत के साथ तो कुछ ग़लत नियत के साथ। लेकिन दैनिक भास्कर ने गैस ट्रेजिडी पर जिस तरह से श्रधांजलि दी वह अदभुत है, न केवल मानवीयता के लिहाज से बल्कि पत्रकारिता में भी एक मिसाल है। शायद इसी लिए भास्कर सबसे अलग है। इसके पहले केवल नई दुनिया ने आपातकाल के समय पेज खाली देकर लोगों को सही मायने में आपातकाल का अहसास दिलाया था। इस भास्कर ने २ दिसंबर की कलि रात को हुए हादसे के लिए ३ दिसंबर के अख़बार के सभी पेज ब्लेक एंड व्हाइट रखे। ३ दिसंबर की सुबह जब लोगों ने अख़बार पड़ा तो उनको २५ साल पहले हुई घटना का अहसास हुआ। आम और खास ने उस रात को महसूस किया। इसके लिए भास्कर की टीम बधाई और साधुवाद की पात्र है। भास्कर ने ३ दिसंबर को जो कंटेंट लिया वहभी लाजवाब है। एक बानगी उस हादसे की भास्कर के द्वारा। 


Subscribe to:
Posts (Atom)
