Wednesday, June 03, 2009

सिनेमा का 30 प्रतिशत दर्शक 70 पर भारी पड़ रहा है

दो दशक पहले किसी ने कल्पना भी नही की होगी कि फ़िल्म प्रदर्शन का व्यवसाय भी मल्टीप्लेक्स इंडस्ट्री और सिंगल इंडस्ट्री नाम के दो टुकडो में बंट जायेगा और फ़िर मल्टीप्लेक्स इंडस्ट्री के वर्चस्व की लडाई इतनी घमासान होगी कि सिंगल स्क्रीन इंडस्ट्री को अस्तित्व कि लडाई लड़ना भी मुश्किल हो जाएगा। मल्टीप्लेक्स क्रांतिकी प्रखरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 1997 मैं दिल्ली के साकेत में शुरू हुए पहले मल्टीप्लेक्स ' पीवीआर अनुपम' के बाद इनकी संख्या इतनी तेज़ी से बड़ी कि अब दिल्ली के ही 56 सिनेमाघरों में से 17 मल्टीप्लेक्स हैं। वहीं पूरे देश में इनकी संख्या 240 हो गई है। जिनमे कुल स्क्रीन संख्या 849 और सीट क्षमता 2,27,084 है। दूसरी और सिंगल स्क्रीन कि संख्या घटकर मात्र 11,000 रह गई है। इनके घटाने कि रफ्तार ऐसी है कि पिछले पाँच साल में अकेले मुंबई में ही 49 सिनेमाघर बंद हो गए और 15 बंद होने कि कगार पर हैं। इस स्थिति को देखकर लगता है कि अब वह समय दूर नही जब प्रदर्शन के क्षेत्र में केवल मल्टीप्लेक्स का राज होगा और सिंगल स्क्रीन इतिहास बन जायेंगे। बरसात कि घास कि तरह पनप रहे मल्टीप्लेक्स को अभी अनुकूल समय मिल गयाहै । मल्टीप्लेक्स चलाने वालों का कहना है कि आज दर्शक आरामदेह कुर्सिया और माहोल चाहता है। इसके लिए वह कीमत भी अदा करने को तैयार है। बदलाव 80 के दशक में शुरू हुआ जब बहुत उम्दा फिल्में दर्शकों को देखने को नही मिली और वह मनोरानाज कि चाहत में इधर-उधर भटकने लगा। ऐसे में ज्यादातर दर्शक घर में बैठकर केबल और वीडियो पर फ़िल्म देखता। भारतीय सिनेमा जगत डूबने लगा और सिनेमा मालिकों को एक रास्ता नजर आया कि अब केवल मल्टीप्लेक्स ही बचा सकते हैं , क्योंकि तब तक मल्टीप्लेक्स अमेरिका में धूम मचा चुके थे। अंतत भारत में भी मल्टीप्लेक्स कि अवधारणा कि नींव पड़ी। इससे सिंगल स्क्रीन बंद होने लगे और मल्टीप्लेक्स का जाल फेलता गया। उस समय कई लोग कन्फयूज थे कि मल्टीप्लेक्स भारत के लिए सही है या सिंगल स्क्रीन। खेर सोचना विचारना चलता रहा और मल्टीप्लेक्स खुलते गए। आज स्थिति हमारे सामने है, लेकिन साथ ही साथ चिंता भी बढती गई कि अब छोटे कस्बों का क्या होगा। काफ़ी हद तक आशंका ठीक निकली कि छोटे कस्बों के लोग मल्टीप्लेक्स में नही जाते थे और सिंगल स्क्रीन बचे नही तो एक बड़े दर्शक वर्ग ने सिनेमा से दूरी बना ली। फिल्मे अब सामाजिक संदेश देने का माध्यम न रहकर केबल कमी का जरिए बन गई है। अब दो हफ्तों के अन्दर अधिकतम रेवेन्यु आ जाता है। एक समय दो करोड़ कि शोले को दस करोड़ कमाने में पूरा एक साल लग गया था, पर अब तो 40 करोड़ कि सिंह इस किंग या गजिनी एक ही हफ्ते में 100 करोड़ कमाकर देती है। इन दिनों भले ही कमाई के 50-50 बंटवारे को लेकर निर्माता मल्टीप्लेक्स का बहिष्कार कर रहे हों, पर सच ये है कि पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री का समर्थन मल्टीप्लेक्स को है। और हो भी क्यों न, देश में कुल बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का बहुत बड़ा हिस्सा इन मल्टीप्लेक्स से ही तो आता है। चूँकि मल्टीप्लेक्स कि वजह से रिकवरी बड़ी है, इसलिए 50-60 करोड़ कि वर्ल्ड क्लास कि फिल्में बनाना संभव हुआ है। इतना ही नही पहले पूरे भारत में साल भर में लगभग 400-500 फिल्में बनती थी, लेकिन अब 26 भाषाओँ में एक हजार से ज्यादा फिल्में बनती हैं। फ़िल्म समीक्षकों का कहना है कि मल्टीप्लेक्स का दर्शक तथाकथित अभिजात्य वर्ग है सम लेंगिकता विषय वाली दोस्ताना या फ़िर लिव इन रिलेशन वाली फैशन या फ़िर आधुनिक देवदास कि कहानी वाली देव दी देखना ज्यादा पसंद करते हैं। सवाल ये है कि क्या मल्टीप्लेक्स बूम के चलते सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर वाकई इतिहास बनकर रह जायेंगे। जबकि अगर ऐसा होता है तो देश का 70 प्रतिशत दर्शक वर्ग जो कि केवल सिंगल स्क्रीन में फिल्में देखना पसंद करता है। मल्टीप्लेक्स अभी भी सहरों तक सीमित है। दर्शकों को सिंगल स्क्रीन से परहेज नही है, बशर्ते इसे अपग्रेड करके मल्टीप्लेक्स स्टार का बनाया जाए। कलेक्शन का ढेर सारा रिकॉर्ड मुंबई के मराठा
मन्दिर के नाम है। वहीं दिल्ली का डीलाईट , जयपुर का राजमंदिर, भोपाल का ज्योति आदि बहुत से स्क्रीन है जो अपने बेहतर रख-रखाव के कारण आज भी सफलता पूर्वक सिंगल स्क्रीन चल रहे हैं। हम आपके हैं कौन, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे , कर्ण-अर्जुन , मैंने प्यार किया आदि ऐसी फिल्में है जो बिना मल्टीप्लेक्स के इतिहास में दर्ज हुई हैं। सस्ती टिकट, किसी खास सिनेमाघर कि लत, मल्टीप्लेक्स से तीन चार गुना ज्यादा सीट जैसे सकारात्मक पहलु भी सिंगल स्क्रीन के साथ जुड़े हैं। इन्हे नजरंदाज नही किया जा सकता है। इस मामले में अगर सरकार सीधे हस्तक्षेप कर सिनेमाघरों को सुधारने कि कवायद शुरू करे तो शायद ग्रामीण क्षेत्र का दर्शक उसके सिंगल स्क्रीन से दूर नही होगा। एक जो सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सरकार अगर पायरेशी पर काबो कर ले तो अपने आप सिंगल स्क्रीन में दर्शकों कि भीड़ बढ जायेगी और इन्हे बंद नही करना पड़ेगा। ये मुश्किल जरूर है मगर संभव है।

2 comments:

अजय कुमार झा said...

bahut hee gajab charchaa kee hai aur aapkaa vishonleshan tatha tathyon kee jaankaaree to adbhut hai mitra...saarthak lekhan.....

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

हाँ, लेकिन मुख्य बात यह है कि अधिकतर पैसा इस 30 प्रतिशत से ही आता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }


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