में पत्रकार हूँ और किसी घटना पर एकदम विश्वास करना मेरी आदत नहीं है। खासतौर से तब जब मामला राजनीति और आर्थिक मामलों का हो। हालिया मामला फिल्म माय नेम इस खान का है, जो अभी न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय खबर बनी हुई है। इस फिल्म का शिवसेना ने जमकर विरोध किया और जनता को भई धमकाया की अगर वे फिल्म देखने गए तो ठीक नहीं होगा। ये भी कहा की फिल्म को किसी भी हालत में चलने नहीं देंगे। लेकिन हमारे देश की जनता ने एक बार फिर शिवसेना को करार जवाब दिया। हालाँकि शिवसेना में एसा कुछ नहीं जिसके लिए जनता को चिंता करने की जरुरत नहीं थी। लेकिन देश के न्यूज़ चैनल ने जनता को एसा करने के लिए मजबूर कर दिया। पुरे देश की जनता महंगाई समेत तमाम समस्यों को भूल चुकी थी और सभी को एक ही चिंता खाए जा रही थी की माय नेम इस खान जरुर लग जाए वर्ना देश का क्या होगा। भले एक वक़्त चाय नहीं पियेंगे लेकिन फिल्म देखने जरुर जाना है। महाराष्ट्र सरकार समेत देश के अन्य राज्यों की सरकार भई इसी काम में जुट गयी और १२ दिसंबर को हर सिनेम्घर पर पुलिस का मजमा था। एक तरफ भरी भीड़ और दूसरी तरफ चाँद शिवसैनिक और बीच में पुलिस। शिवसैनिक केवल नारेबाजी करती रही और फिल्म शुरू होते ही तमाम फुरसतिया नोजवान जो शिवसैनिक बनकर आये थे अपने-अपने घर या फिर फिल्म देखने चले गए। सबसे बड़ा सवाल ही ये की शिवसेना के विरोध में कोई दम नहीं दिखा और इससे भी बड़ी बात की जेसे फिल्म रिलीस हुई शाहरुख़ ने तत्काल ट्विटर पर जाकर माफ़ी मांग ली और कुछ देर बाद बल ठाकरे ने भी अपने कार्यकर्ताओं को बधाई दे दी। यानि अब सब कुछ शांत हो गया। न कोई हंगामा और न कोई विरोध फिल्म हित हो गयी।
लेकिन क्या लेखक भी लिखते रहेंगे की जनता जीत गयी क्योंकि मुझे तो लगता है की जनता हार गयी।
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