भोपाल। लंबे समय से सिनेमाघरों में पड़ा सन्नाटा शायद इस शुक्रवार को टूट जाए। क्योंकि 26 जून को यशराज बैनर की "न्यूयार्क" रिलीज़ हो रही है। इस फ़िल्म के निर्देशक कबीर खान हैं। कबीर खान की पिछली फ़िल्म "काबुल एक्सप्रेस" अफगानिस्तान और आतंकवाद पर आधारित थी। "न्यूयार्क" उसी का विस्तार लगता है। इस फ़िल्म की अवधारणा में न्यूयार्क और 9-11 की घटना है। अगर पिछले साल पाकिस्तान से आई "खुदा के लिए" से कोई समानता दिखे तो यह महज क्रिएटिव संयोग है। फिल्म के सारे कलाकारों ने किसी भी प्रकार की समानता से इन्कार किया है। निर्देशक कबीर खान तो बहुत पहले से कह ही रहे हैं। बहरहाल इस फ़िल्म से न केवल सिनेमाघरों को बल्कि फ़िल्म की टीम को भी ज्यादा उम्मीदें हैं। खासतौर से नील नितिन और जान अब्राहम के लिए फ़िल्म का सफल होना जरूरी है।
न्यूयार्क तीन दोस्तों की कहानी है। उमर (नील नितिन मुकेश), माया (कैटरीना कैफ) और सैमी (जान अब्राहम) न्यूयार्क में मिलते हैं। उनमें दोस्ती है। दोस्ती के साथ मौज-मस्ती भी चलती है। उमर वहां नया-नया पहुंचा है। वह न्यूयार्क शहर देख कर दंग है। तीनों दोस्त अमेरिका में एक नई दुनिया में जीते हैं। तीनों दोस्तों की निजी जिंदगी 9-11 की घटना से अचानक बदल जाती है। एक ऐसी घटना जिस पर उनका वश नहीं है, लेकिन जिसके आगे वे विवश हैं। जान अब्राहम, कैटरीना कैफ और नील नितिन मुकेश की न्यूयार्क समकालीन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में नए ढंग की कहानी है। खास कर कैटरीना पहली बार थोड़ी अलग भूमिका में दिखेंगी।
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Thursday, June 25, 2009
Monday, June 08, 2009
अब हबीब तनवीर का नया थियेटर कौन बनाएगा?
"तुने कहा न था के मैं कस्ती पे बोझ हूँ ,
चेहरे को अब न ढांप मुझे डूबते भी देख
चेहरे को अब न ढांप मुझे डूबते भी देख
-शकेब जलाली
ठीक एसा ही कह रही थी वे बंद आँखे जब लोग उनका अन्तिम दर्शन करने आ रहे थे। क्या लगता? क्या उम्र के क़दमों ने साथ छोड़ दिया था इसलिए हबीब साहब हमसे दूर चले गए। या फ़िर उस कमबख्त अस्थमा ने उन्हें हमसे छीन लिया। हो सकता है ये सभी कारण हो सकते हैं उनके हमारे बीच से चले जाने के, लेकिन एक कारण मैं भी जानता हूँ। वह कारण जिसने न केवल उनको हमसे दूर किया बल्कि हबीब साहब के सपने को भी तोडा हैं। जी हाँ हबीब साहब
का एक सपना था की वह कलाकारों के लिए मध्यप्रदेश में एक नया थियेटर बनाये, जिसमे एक ही छत के नीचे कलाकारों के लिए वे सभी सुविधा हो जो एक आम कलाकारों को नही मिल पाती है। जिस पीड़ा को हबीब साहब दूर करना चाहते थे वह पीड़ा कभी न कभी उन्होनें ख़ुद झेली है। खेर मैं बात कर रहा हूँ उनके सपने की।
दिल्ली का सपना भोपाल में भी पुरा न हो सका
दरअसल हबीब साहब जो नया थियेटर बनाना चाहते थे उसके लिए केन्द्र और राज्य सरकार से वे लंबे समय से मांग कर रहे थे। उनको वर्ष 2000 के पहले दिल्ली के बेग्सरय में जमीन दी गयी थी। लेकिन बाद में जब खेल गाँव की बात चली तो उनसे वह जमीन छीन ली गयी, लेकिन हबीब साहब ने हार नही मानी और अपने संघर्ष को जारी रखा। उन्होंने अपनी मांग और योजना के बारे में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह को
भी बताया। दिग्विजयसिंह ने वर्ष 2000 में राजधानी भोपाल के पास बावडियाकलां में 0.60 एकड़ जमीन आवंटित कर दी। हबीब साहब अपनी व्यस्ताओं के चलते उस जमीन पर नया थियेटर का काम शुरू नही कर सके। इस बात का फायदा उठाकर एक स्थानीय भू-माफिया ने उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया। मामला स्थानीय अदालत तक गया और वर्ष 2005 में अदालत ने हबीब साहब के पक्ष में फ़ैसला सुनाया। इसके बाद हबीब साहब और उनके शागिर्दों ने मिलकर उस जमीन पर नया थियेटर यानी ग्लोबल वर्कशॉप बनने का काम शुरू करने की तैयारी कर ली। इस दौरान हबीब साहब फ़िर से अपने नाटकों में व्यस्त हो गयी और एक बार फ़िर नया थियेटर बनने की बात आई गई हो गयी। इसके बाद जून 2008 में हबीब साहब को मालूम चला की उनकी जमीन पर लगे पदों
को कटा जा रहा है तो वे व्यथित हो गए मामले की सुचना राजधानी के शाहपुरा थाने में दी, लेकिन वहां से केबल आश्वासन मिला। जब कलेक्टर मनीष रस्तोगी को ये बात पता चली तो उन्होंने तत्काल मामले में हस्तक्षेप किया और कब्जे धारीओं के वहां से हटाया। आखिकार सरकार से उम्मीद बंधी लेकिन वह भी फौरी निकली और फ़िर से वही ढाक के तीन पात वाला मामला हो गया। बीच में कई बार सरकार को चेताया-बताया लेकिन उनके सपने से किसी ने सरोकार नही जताया और आख़िर वो दिन भी आगे जब हबीब अपने टूटे सपने के साथ दुनिया से विदा हो गए। शायद हबीब साहब को अपने अन्तिम समय
का भानहो गया था, इसलिए उन्होंने एक माह पहले ही नया थियेटर के लिए के समिति गठित कर दी। जिसमे शायर मंजूरे एहतेशाम, कवि और लेखक कमला प्रसाद व राजेन्द्र सिंह समेत शामिल किया। अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये है की जब हबीब साहब ख़ुद अपने सपने कोई पूरा नही कर सके तो क्या कोई और कर पायेगा। संभवत हम इसका जवाब हाँ में चाहेंगे , लेकिन इसकी गूंजाइस कम है। हाँ ये सकता है अगर हबीब साहब के तमाम शागिर्द व अन्य कलाकार मिलकर सरकार के पीछे लग जाए।
गौरतलब है की जब मध्य प्रदेश में सन दो हजार तीन में पोंगा पंडित और लाहौर का मंचन शुरु हुआ तो भगवा ब्रगेड के कार्यकर्ताओं ने जमकर विरोध प्रदर्शन कर इन दोनों नाटको के मंचन को रुकवाने की कोशिश की । लेकिन हबीब की जिजीविषा पर कोई असर नहीं हुआ और अपने नाटकों के माध्यम से वो अलख जगाते रहे, बगैर डरे, बगैर घबराए । रंगमंच की इस महान विभूति को हमारी श्रद्धांजलि ।
Wednesday, June 03, 2009
सिनेमा का 30 प्रतिशत दर्शक 70 पर भारी पड़ रहा है
दो दशक पहले किसी ने कल्पना भी नही की होगी कि फ़िल्म प्रदर्शन का व्यवसाय भी मल्टीप्लेक्स इंडस्ट्री और सिंगल इंडस्ट्री नाम के दो टुकडो में बंट जायेगा और फ़िर मल्टीप्लेक्स इंडस्ट्री के वर्चस्व की लडाई इतनी घमासान होगी कि सिंगल स्क्रीन इंडस्ट्री को अस्तित्व कि लडाई लड़ना भी मुश्किल हो जाएगा। मल्टीप्लेक्स क्रांतिकी प्रखरता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 1997 मैं दिल्ली के साकेत में शुरू हुए पहले मल्टीप्लेक्स ' पीवीआर अनुपम' के बाद इनकी संख्या इतनी तेज़ी से बड़ी कि अब दिल्ली के ही 56 सिनेमाघरों में से 17 मल्टीप्लेक्स हैं। वहीं पूरे देश में इनकी संख्या 240 हो गई है। जिनमे कुल स्क्रीन संख्या 849 और सीट क्षमता 2,27,084 है। दूसरी और सिंगल स्क्रीन कि संख्या घटकर मात्र 11,000 रह गई है। इनके घटाने कि रफ्तार ऐसी है कि पिछले पाँच साल में अकेले मुंबई में ही 49 सिनेमाघर बंद हो गए और 15 बंद होने कि कगार पर हैं। इस स्थिति को देखकर लगता है कि अब वह समय दूर नही जब प्रदर्शन के क्षेत्र में केवल मल्टीप्लेक्स का राज होगा और सिंगल स्क्रीन इतिहास बन जायेंगे। बरसात कि घास कि तरह पनप रहे मल्टीप्लेक्स को अभी अनुकूल समय मिल गयाहै । मल्टीप्लेक्स चलाने वालों का कहना है कि आज दर्शक आरामदेह कुर्सिया और माहोल चाहता है। इसके लिए वह कीमत भी अदा करने को तैयार है। बदलाव 80 के दशक में शुरू हुआ जब बहुत उम्दा फिल्में दर्शकों को देखने को नही मिली और वह मनोरानाज कि चाहत में इधर-उधर भटकने लगा। ऐसे में ज्यादातर दर्शक घर में बैठकर केबल और वीडियो पर फ़िल्म देखता। भारतीय सिनेमा जगत डूबने लगा और सिनेमा मालिकों को एक रास्ता नजर आया कि अब केवल मल्टीप्लेक्स ही बचा सकते हैं , क्योंकि तब तक मल्टीप्लेक्स अमेरिका में धूम मचा चुके थे। अंतत भारत में भी मल्टीप्लेक्स कि अवधारणा कि नींव पड़ी। इससे सिंगल स्क्रीन बंद होने लगे और मल्टीप्लेक्स का जाल फेलता गया। उस समय कई लोग कन्फयूज थे कि मल्टीप्लेक्स भारत के लिए सही है या सिंगल स्क्रीन। खेर सोचना विचारना चलता रहा और मल्टीप्लेक्स खुलते गए। आज स्थिति हमारे सामने है, लेकिन साथ ही साथ चिंता भी बढती गई कि अब छोटे कस्बों का क्या होगा। काफ़ी हद तक आशंका ठीक निकली कि छोटे कस्बों के लोग मल्टीप्लेक्स में नही जाते थे और सिंगल स्क्रीन बचे नही तो एक बड़े दर्शक वर्ग ने सिनेमा से दूरी बना ली। फिल्मे अब सामाजिक संदेश देने का माध्यम न रहकर केबल कमी का जरिए बन गई है। अब दो हफ्तों के अन्दर अधिकतम रेवेन्यु आ जाता है। एक समय दो करोड़ कि शोले को दस करोड़ कमाने में पूरा एक साल लग गया था, पर अब तो 40 करोड़ कि सिंह इस किंग या गजिनी एक ही हफ्ते में 100 करोड़ कमाकर देती है। इन दिनों भले ही कमाई के 50-50 बंटवारे को लेकर निर्माता मल्टीप्लेक्स का बहिष्कार कर रहे हों, पर सच ये है कि पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री का समर्थन मल्टीप्लेक्स को है। और हो भी क्यों न, देश में कुल बॉक्स ऑफिस कलेक्शन का बहुत बड़ा हिस्सा इन मल्टीप्लेक्स से ही तो आता है। चूँकि मल्टीप्लेक्स कि वजह से रिकवरी बड़ी है, इसलिए 50-60 करोड़ कि वर्ल्ड क्लास कि फिल्में बनाना संभव हुआ है। इतना ही नही पहले पूरे भारत में साल भर में लगभग 400-500 फिल्में बनती थी, लेकिन अब 26 भाषाओँ में एक हजार से ज्यादा फिल्में बनती हैं। फ़िल्म समीक्षकों का कहना है कि मल्टीप्लेक्स का दर्शक तथाकथित अभिजात्य वर्ग है सम लेंगिकता विषय वाली दोस्ताना या फ़िर लिव इन रिलेशन वाली फैशन या फ़िर आधुनिक देवदास कि कहानी वाली देव दी देखना ज्यादा पसंद करते हैं। सवाल ये है कि क्या मल्टीप्लेक्स बूम के चलते सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर वाकई इतिहास बनकर रह जायेंगे। जबकि अगर ऐसा होता है तो देश का 70 प्रतिशत दर्शक वर्ग जो कि केवल सिंगल स्क्रीन में फिल्में देखना पसंद करता है। मल्टीप्लेक्स अभी भी सहरों तक सीमित है। दर्शकों को सिंगल स्क्रीन से परहेज नही है, बशर्ते इसे अपग्रेड करके मल्टीप्लेक्स स्टार का बनाया जाए। कलेक्शन का ढेर सारा रिकॉर्ड मुंबई के मराठा
मन्दिर के नाम है। वहीं दिल्ली का डीलाईट , जयपुर का राजमंदिर, भोपाल का ज्योति आदि बहुत से स्क्रीन है जो अपने बेहतर रख-रखाव के कारण आज भी सफलता पूर्वक सिंगल स्क्रीन चल रहे हैं। हम आपके हैं कौन, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे , कर्ण-अर्जुन , मैंने प्यार किया आदि ऐसी फिल्में है जो बिना मल्टीप्लेक्स के इतिहास में दर्ज हुई हैं। सस्ती टिकट, किसी खास सिनेमाघर कि लत, मल्टीप्लेक्स से तीन चार गुना ज्यादा सीट जैसे सकारात्मक पहलु भी सिंगल स्क्रीन के साथ जुड़े हैं। इन्हे नजरंदाज नही किया जा सकता है। इस मामले में अगर सरकार सीधे हस्तक्षेप कर सिनेमाघरों को सुधारने कि कवायद शुरू करे तो शायद ग्रामीण क्षेत्र का दर्शक उसके सिंगल स्क्रीन से दूर नही होगा। एक जो सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सरकार अगर पायरेशी पर काबो कर ले तो अपने आप सिंगल स्क्रीन में दर्शकों कि भीड़ बढ जायेगी और इन्हे बंद नही करना पड़ेगा। ये मुश्किल जरूर है मगर संभव है।
मन्दिर के नाम है। वहीं दिल्ली का डीलाईट , जयपुर का राजमंदिर, भोपाल का ज्योति आदि बहुत से स्क्रीन है जो अपने बेहतर रख-रखाव के कारण आज भी सफलता पूर्वक सिंगल स्क्रीन चल रहे हैं। हम आपके हैं कौन, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे , कर्ण-अर्जुन , मैंने प्यार किया आदि ऐसी फिल्में है जो बिना मल्टीप्लेक्स के इतिहास में दर्ज हुई हैं। सस्ती टिकट, किसी खास सिनेमाघर कि लत, मल्टीप्लेक्स से तीन चार गुना ज्यादा सीट जैसे सकारात्मक पहलु भी सिंगल स्क्रीन के साथ जुड़े हैं। इन्हे नजरंदाज नही किया जा सकता है। इस मामले में अगर सरकार सीधे हस्तक्षेप कर सिनेमाघरों को सुधारने कि कवायद शुरू करे तो शायद ग्रामीण क्षेत्र का दर्शक उसके सिंगल स्क्रीन से दूर नही होगा। एक जो सबसे महत्वपूर्ण बात है कि सरकार अगर पायरेशी पर काबो कर ले तो अपने आप सिंगल स्क्रीन में दर्शकों कि भीड़ बढ जायेगी और इन्हे बंद नही करना पड़ेगा। ये मुश्किल जरूर है मगर संभव है।
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